कहानी : पागल
यूँ तो होते हैं मुहब्बत में जुनूँ के आसार
और कुछ लोग भी दीवाना बना देते हैं
पहाड़, पठार, झील, झरनों से गुज़रते हुए मुज़फ़्फ़रपुर और फिर वहां से वाल्मीकिनगर तक पहुंचने में चौबीस घंटे लगे। हर जगह हर चीज़ में उसकी झलक साफ़ नुमाया थी। इन हसीन नज़ारों का ख़ालिक़ कैसा होगा यही सोचते हुए रास्ता कट गया।
अर्से बाद जब मुझे रांची के केंद्रीय मनोचिकित्सा संस्थान से छुट्टी मिली तो उस लड़के को देखने की तिव्र इच्छा मन में जागृत हुई जिसके ख़्यालात मुझे अस्पताल में परेशान किया करते थे। फिर क्या था मैं घर पहुंचते ही जा पहुंचा उसके ठिकाने पर।
वो लड़का सर्दी की रात के अंधेरे में आम के पेड़ के नीचे कुछ खुरच रहा था।
मैं आहिस्ता आहिस्ता उसके पास पहुंचा। देखना चाहता था कि आख़िर पागल जैसी हरकत करने वाला यह लड़का है कौन?
दरअसल, वो लड़का कुछ खोज रहा था। नज़दीक जाकर देखने पर पता चला कि वो आम के पेड़ के नीचे सूखे पत्तों के जले अलाव में चिंगारी ढूंढ रहा था। वो चिंगारी से बीड़ी जलाने की जुगाड़ में था और आख़िरकार उसने बीड़ी जलाने में कामयाबी हासिल कर ही ली।
एक – दो- तीन और फिर अगली कश, हर कश में उसका काला सा दिखने वाला चेहरा बड़ा ही सौम्य नज़र आ रहा था।
मैं उसे पहचान गया। कुछ लोग अपनी भावनाओं को ज़ाहिर कर देते हैं और कुछ अपने अंदर दबाए रहते हैं। भावनाओं को दबाए रखने वालों में से ही था वो लड़का।
दर असल बात यह थी कि वो गाँव की एक लड़की से प्रेम करता था। वो लड़की भी उससे प्रेम करती थी, लेकिन उसकी क़िस्मत गांव में ही रहने वाले ज़मीनदार के बेटे से बंध गई और ये बेचारा रह गया अकेला। साथ छूटने के बाद वो अपनी सुध बुध खो बैठा और नशे में अपनी यादों को डूबोने लगा। शायद प्रेम और इश्क़ में यही फ़र्क़ होता है। लड़की ने प्रेम किया था और लड़के ने इश्क़।
बहरहाल प्रेम में ठोकर खाकर वो लड़का विद्रोही हो गया था। ऐसी परिस्थिति में अपनी नकारात्मक भावना को सकारात्मकता में बदलने की ज़रूरत होती है, नहीं तो ये आपको ग़र्त में ले जाती है और यही उसके साथ हुआ था।
मैंने सोच के दायरे से निकलते हुए देखा दूसरी छोर पर बैठे उस पागल से दिखने वाले लड़के की बीड़ी सुलगनी बंद हो चुकी थी, और बीड़ी के बुझने तक वो आख़िरी कश सीने में उतार चुका था।
रात भर सोचते रहने के बाद भी मैं ये नहीं समझ पाया कि इंसान जब इंसान की ख़ूबसूरती में खोकर पागल हो सकता है तो उस ख़ूबसूरती को बनाने वाले को देख ले तो क्या होगा।
रात भर की बेख़्वाबी से आंखों में जलन हो रही थी लेकिन नींद अभी भी आंखों से कोसों दूर थी।
सुबह पत्नी ज़ुलैखा ने मेरे बालों में उंगली फेरते हुए कहा – युसुफ़, मैं तो कबकी उसे भूल चुकी हूं, लेकिन तुम ख़ुदको उसकी आग में जलाए जा रहे हो? आख़िर कौन लगता है वो तुम्हारा? वापस लौट आओ अपनी दुनिया में। मेरे शौहर को लोग पागल कहें ये और बर्दाश्त नही होता मुझसे।
मैंने हंसते हुए कहा – ज़ुलैखा, तुम उसकी पारो हो और वो तुम्हारा देवदास, और मैं किसी देवदास को इस तरह तड़पते हुए नही देख सकता।
और मैं भी, अपने शौहर को तड़पते हुए नही देख सकती। ज़ुलैखा ने कहा।
मैं तुम्हें आज़ाद करता हूं ज़ुलैखा। जाओ अपने देवदास के पास। युसुफ़ ने कहा।
ज़ुलैखा ने कहा – बकवास मत करो युसुफ़, अब मेरे देवदास तुम हो, सिर्फ़ तुम। मैं कहीं नही जाऊंगी।
नहीं – तुम्हें जाना होगा। ये कहते हुए मैंने ज़ुलैखा का हाथ पकड़ा और खींचते हुए उसको, उसके देवदास से मिलाने चल पड़ा।
ज़ुलैखा ख़ुद को जाने से रोकने के लिए घिसटती जा रही थी। लेकिन मेरे ऊपर तो जुनून सवार था। मैं उसको लगातार खींचते हुए अपनी मंज़िल की तरफ़ बढ़ रहा था।
गांव के लोग इस दृश्य को देखकर हतप्रभ थे।
जब हम दोनों उस लड़के के पास पहुंचे तो वो हस्बे मामूल चिलम चढ़ाने में मशग़ूल था।
मैंने ज़ुलैखा को उसके सामने ढ़ेर कर दिया। लेकिन उसके ऊपर इसका कोई असर नही हुआ। वो अपनी धुन में लगातार कुछ बुदबुदाए जा रहा था और हर दो चार मिनट पर बीड़ी या गांजे का कश लगाए जा रहा था।
ज़ुलैखा भी उसे किसी दूसरी दुनिया के मख़लूक़ की तरह एकटक निहारे जा रही थी। शायद वो सोच रही थी कि ये कैसा मजनूं है जो अपनी लैला को भी नही पहचानता।
मैंने झुंझलाहट में उस लड़के को एक ज़ोरदार थप्पड़ रसीद करते हुए ज़ोर से कहा – ये तुम्हारी ज़ुलैखा है – – –
उसने जवाबी कार्रवाई करते हुए बग़ल से एक डंडा उठाया और मेरे ऊपर बरसाने लगा। माथे पर वार पड़ते ही मैं माथा पकड़ कर बैठ गया।
ज़ुलैखा मुझे बचाने लगी। जब वो लड़का नही रुका तो ज़ुलैखा खूंखार शेरनी की तरह उसपर टूट पड़ी।
फिर क्या था – वो पागल लड़का भागने लगा और ज़ुलैखा उसे दौड़ाने लगी। चंद फर्लांग की दूरी पर ही नदी अपनी रवानी में बह रही थी जिसकी धार पर वो लड़का सरपट भागने लगा।
मैं हैरत से उस दृश्य को देखने लगा। ऐसा लग रहा था जैसे नदी की धारा उसके लिए पानी नहीं समतल ज़मीन हो।
फिर – – उसके पीछे पीछे – – ज़ुलैखा भी नदी के धारा पर दौड़ पड़ी – – लेकिन – – – छपाक – – – की आवाज़ के साथ वो पानी में डूबती चली गई।
मैं इस सपने जैसे दृश्य को सच मानता इसके पहले ही ज़ुलैखा नज़रों से ओझल हो चुकी थी।
मैं गिरते पड़ते नदी के किनारे तक पहुंचा – – लेकिन दूर दूर तक ना तो पानी के अंदर ज़ुलैखा नज़र आ रही थी और ना ही पानी के ऊपर वो पागल लड़का।
मैंने आसमान की तरफ़ देखते हुए कहा –
तु हक़ीक़त, मैं सिर्फ़ एहसास हूं – तू समंदर, मैं भटकी हुई प्यास हूं – –
— अब्दुल ग़फ़्फ़ार