स्वयंप्रभा
निरर्थक साधनाओं में कैद होता संसार
तुमको तलाशता सुदूर तीर्थों में
और मैं लिखती हूं
तुम्हारी विस्तृत हथेली पर
वो तमाम प्रणय गीत
जो मेरा ह्रदय गाता है।
व्यर्थ कर्मकांडों के वशीभूत होता संसार
तुम को ढूंढता बेमतलब क्रियाओं में
और मैं निमग्न होती हूं
उस चरमबिंदु पर
जहां आसन-रत हो
प्रेम ईश्वर हो जाता है।
अर्थहीन आडम्बरों से आच्छादित होता संसार
तुमको देखता निर्जीव पाषाणों में
और मैं तन्मय होती हूं
हृदय के उस घाट पर
जहां हिम-द्रवित हो
गंगा का उद्गम हो जाता है।
मिथ्या अर्चन से सम्मोहित होता संसार
तुमको पुकारता उन्मादी कोलाहल में
और मैं मल्हार रचती हूं
अंतस के उस सभा मंडल में
जहां घनगर्जित हो
जीवन स्वयंप्रभु हो जाता है।
— अनुजीत