किताबों की ओर
“अभी आग है बाकी मुझमे पूरा नहीं जला हूँ मैं
बह चला हूँ मैं पानी में पूरा नहीं घुला हूँ मैं”
सालों से बच्चों को पढ़ाते हुए जो अनुभव मुझे प्राप्त हुए उनके आधार पर कुछ साझा करने की इच्छा हो रही है।
इंटरनेट की दुनिया में हमारे सामने ज्ञान के भण्डार खुल गए हैं। आपको जिसकी जानकारी चाहिए वह सब कुछ मिल जाएगा यहाँ। सुई से लेकर चन्द्रायान तक सब कुछ है यहाँ। सवालों के फटाफट जवाब तैय्यार हैं। फोटो, वीडिओ, लिखित सामग्री सब उपलब्ध है।
अपने प्रोजेक्ट और नोट्स बनाने के नाम पर बच्चे अपना अधिकतम समय इंटरनेट पर बिताते हैं। ऐसे में यह सुनिश्चित नहीं किया जा सकता कि वे सिर्फ वही पढ़ रहे हैं जो उनके लिए आवश्यक है। नेट से तो जो चाहा उसे डाउनलोड कर लिया और दिमाग मे अपलोड कर लिया। हम अपडटे और अपग्रडे हो रहे हैं। आई क्यू लेवल बढ़ चुका है। जिंदगी रफ्तार में चल रही है लेकिन.. ई क्यू लेवल का क्या हो रहा है इस पर किसी का ध्यान नहीं है। ई क्यू यानी इमोशनल कोशेंट हमारी फीलिंग्स से जुड़ा है। इसकी मदद से हम खुद अपने इमोशंस और दूसरों के इमोशंस को समझ कर उन्हें मैनेज करते हैं। ईक्यू आपस में अच्छे रिश्ते बनाने और सही वक्त पर सही तरीके से बर्ताव करने जैसे कामों में हमारी मदद करता है। ईनेट की ये ज्ञान वान दुनिया हमें लोगों से जुड़ने नहीं दे रही। कुछ भी जानने के लिए हम किसी के साथ बात करने की जगह इंटरनेट से जानने के लिए उतवाले हो जाते है। मित्रता का पर्याय फेसबुक और व्हाट्सएप की आभासी दुनिया हो गई है। हमारे किसी अपने को जब हमारी ज़रूरत होती है तब हम समझ ही नहीं पाते हैं कि हमें वक्त देना कहाँ है। आभासी दुनिया क्यू ना कहा जाए इसको जहाँ पब्जी जैसे खेल खेलकर बच्चे अपनी जान गँवा देते हैं, अपने सर दर्द पर हम दवा खाएं या न खाएं लेकिन उनका आभास दुनिया भर को करा देते हैं। माँ बाप को क्या दर्द है, बच्चों को तकलीफ़ क्या हैं यह जान समझ नहीं पा रहे हैं हम। हम स्वयं को सुधारने के स्थान पर जग को सुधारना चाहते है। खुद से प्रतिस्पर्धा करने की जगह दूसरों से आगे निकलने की ललक ने समाज में द्वेष की भावना का संचार किया है। इसीलिए अपराध विशेष कर बाल अपराध के मामले बढ़ रहे हैं। वृद्धाश्रम और बाल सुधार गृह भरे हुए हैं।
रिसर्च कहती है कि अपने विचारों और फीलिंग्स को लिखना इमोशनल कोशेंट को बढ़ाने में काफी कारगर साबित होता है। लेकिन मात्र इंटरनेट से जहाँ से बिना विश्वासनीयता बिना फायरवॉल के हमारे बच्चे ज्ञान ले रहे है, वहाँ से हम ई क्यू कैसे बढ़ा लेंगे। जैसे जैसे हम नई नई तकनीकें अपना रहे हैं वहाँ कहीं ना कहीं किताबों से नई पीढी का नाता कम होता जा रहा है। किताबे किसी की वर्षों की कड़ी मेहनत और अनुसंधान का नतीजा होती हैं
उनसे हमारी नई पीढी दूर हो रही है। अभी भी ढेरों साहित्य और सामग्री इंटरनेट पर उपलब्ध नहीं है जिनसे जुड़ने के लिए उन किताबों को ही पढ़ना होगा। मेरा कहना यह कतई नहीं है कि आप नई तकनीकी ना अपनायें लेकिन जुड़ाव की कड़ी किताबों को अपना मित्र अवश्य बनाए रहें।
हमें शिक्षा का मूल अधिकार प्राप्त है। जो अधिक धन नहीं खर्च कर के प्राइवेट सन्स्थाओं मे शिक्षा नहीं ग्रहण कर सकता उनके लिए भी सरकार ने शिक्षा प्रदान करने की पूरी व्यवस्था कर रखी है। इंटरनेट की उपलब्धता भले ही ना हो पर पुस्तकें निशुल्क उपलब्ध हैं, शिक्षालय भी और शिक्षक भी उच्च शिक्षा प्राप्त। ऐसी शिक्षा व्यवस्था में यदि लाखों की आबादी वाले पुस्तकालय की सदस्यता सैंकड़ा भी ना छुए तो यह शर्मिन्दगी की बात है।
आज समाज में पीडित,शोषित,दलित,वंचित सिर्फ इसलिए हैं क्यों
कि इस शिक्षा व्यवस्था को ठीक तरह क्रियांवित् नहीं किया जा पा रहा। इस इंटरनेट के होते हुए भी अगर लोग अपने अधिकरों को भली प्रकार जानते नहीं है और कर्तव्यों प्रति सजग नहीं हैं तो यह एक सोचनीय विषय है। शिक्षा ग्रहण करने का मूल उद्देश्य सीखना होना चाहिए। बच्चों में नंबर अधिक लाने की जगह अगर ज्ञान अधिक अर्जित करने की भावना का विकास करना है तो उन्हे किताबों से जुड़े रहना होगा। हाँ नई तकनीकि का इस्तेमाल तो और भी क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकता है। लाइब्रेरियाँ डिजिटल करी जा सकती हैं। कागज की कम खपत से एक तरह से पर्यावरण संरक्षण का काम ही होगा। इस तरह एक सकारात्मक पहल बहुत सारे सकारात्मक परिणाम ले कर आएगी।
– शिप्रा खरे