क्या सचमुच न्याय अन्धा होता है
सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस रन्जन गोगोई द्वारा पिछले वर्ष १०-११ अक्टुबर को अपने आवासीय कार्यालय में अपनी ही ३५ वर्षीया महिला जूनियर कोर्ट सहायक से कथित यौन उत्पीड़न का मामला चुनावी शोरगुल में दब गया था। लेकिन अब जब देश को एक स्थाई सरकार मिल चुकी है और चुनाव का माहौल खत्म हो चुका है तो इस पर सरकार, महिला आयोग, संसद, नेता और जनता को यह विचार करना चाहिए कि क्या यौन उत्पीड़न की शिकार महिला को न्याय मिल गया? अपने ही मित्र जजों की अनौपचारिक समिति द्वारा एकतरफा सुनवाई कराकर क्लीन चिट प्राप्त कर क्या माननीय चीफ जस्टिस ने न्याय का उपहास नहीं किया है? घटना और घटना की पूर्व स्थितियों का विवरण निम्नवत है —
१. दिनांक ९ अक्टूबर, २०१८ को पीड़ित महिला की सिफारिश पर सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस रंजन गोगोई महिला के देवर/बहनोई (Brother-in-law) को आदेश संख्या F-3/2018-SCA(1) New Delhi dated Oct 9, 2018 के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट के अपने विशेषाधिकार का उपयोग करते हुए अस्थाई कनिष्ठ कोर्ट अटेन्डेन्ट के पद पर नियुक्त करते हैं और १०-११ अक्टूबर को अपने आवासीय कार्यालय में महिला के यौन उत्पीड़न का प्रयास करते है। पीड़ित महिला ने अपने एफ़डेविट में यह स्पष्ट किया है। इससे तो यह साफ है कि चीफ़ जस्टिस महोदय महिला को अच्छी तरह से जानते थे और उसके प्रति कही न कही मृदु भाव रखते थे, तभी उसकी सिफारिश पर उसके निकट के संबन्धी को नौकरी देने का कार्य किया। उन्हें यह उम्मीद थी कि महिला उनके एहसान तले दब जाएगी और उनकी इच्छा की पूर्ति करेगी। यौन उत्पीड़न की घटना इसी का परिणाम थी।
२. इस घटना की दबी जुबान चर्चा सुप्रीम कोर्ट के गलियारे में शुरु हो गई थी। पीड़ित महिला को इसका परिणाम भुगतना ही था। उसे दिनांक २१-१२-१८ को सेवा से बर्खास्त कर दिया गया। आरोप भी हास्यास्पद ही था — महिला ने बिना पूर्व अनुमति के एक दिन का आकस्मिक अवकाश लिया था। क्या इतना छोटा आरोप Dissmisal का कारण बन सकता है। उत्पीड़न यही तक नहीं रुका। ९ अक्टूबर को नौकरी पाए उसके देवर/ बहनोई को भी सेवामुक्त कर दिया गया।
३. एक पुराने अप्रमाणित रिश्वत लेने के मामले में दिल्ली पुलिस पर दबाव डालकर महिला और उसके पति को राजस्थान स्थित उसकी ससुराल से गिरफ़्तार करके दिल्ली लाया गया और हिरासत में रखकर यंत्रणा दी गई।
४. पीड़ित महिला के पति और देवर जो दिल्ली पुलिस में हेड कांस्टेबुल थे, निलंबित कर दिया गए।
५. महिला को पुलिस द्वारा अपने घर बुलाकर चीफ़ जस्टिस की पत्नी के चरणों में नाक रगड़कर माफ़ी मांगने के लिए वाध्य किया गया।
६. महिला को तरह-तरह की धमकियां मिलती रही। आज़िज़ आकर महिला ने न्याय की गुहार लगाते हुए पूरी घटना का विवरण अप्रिल, २०१९ में शपथ-पत्र के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट के सभी जजों को भेजा। इस शपथ पत्र के सोसल मीडिया पर आ जाने के बाद पूरे देश में हड़कंप मच गया। चुनाव सिर पर होने के कारण राजनेता चुप रहे।
७. भयभीत मुख्य न्यायाधीश महोदय ने आनन-फानन में तीन जजों की एक पीठ गठित की जिसकी अध्यक्षता उन्होंने स्वयं की। इसकी सूचना न पीड़िता को दी गई और ना ही उसका पक्ष सुना गया। न्यायमूर्ति गोगोई ने स्वयं महिला पर कई गंभीर आरोप लगाए और इस घटना को लोकतन्त्र और न्यायपालिका पर एक गंभीर हमला बताया।
८. सुप्रींम कोर्ट की इस अनोखी कार्यवाही पर मीडिया में तीखी प्रतिक्रिया हुई। पीड़िता तो क्या, कोई भी पढ़ालिखा आदमी कोर्ट के इस फैसले से सन्तुष्ट नहीं था।
९. चीफ़ जस्टिस द्वारा Eye-wash करने का एक और प्रयास किया गया। उन्होंने घटना की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की एक समिति गठित कर दी जो न संवैधानिक थी, न वैधानिक थी और न किसी अधिकार से संपन्न थी। यह पूर्ण रूप से एक अनौपचारिक समिति थी। इस समिति में उन्होंने जस्टिस रमन्ना को रखा जो उनके परम मित्र ही नहीं, परिवार के सदस्य की तरह हैं। पीड़िता द्वारा आपत्ति दर्ज़ कराने के बाद उनके स्थान पर जस्टिस बोगडे को रखा गया।
१०. समिति ने पीड़िता को अपनी बात रखने के लिए २६ अप्रिल को बुलाया। इस बीच भयंकर आर्थिक संकट और मानसिक तनाव के कारण महिला की श्रवण-शक्ति बाधित हो गई। वह दाहिने कान से पूर्ण रुप से और बाएं कान से आंशिक रूप से बधिर हो गई।
११. अवसाद की शिकार महिला फिर भी २६ अप्रिल को समिति के सामने उपस्थित हुई। अपनी शारीरिक और मानसिक अवस्था का हवाला देते हुए उसने वकील के माध्यम से अपनी बात कहने का अनुरोध किया। उसने कार्यवाही की विडियो/आडियो रिकार्डिंग की भी मांग की। अकेले इतने वरिष्ठ जजों के सामने उनके प्रश्नों को सुन वह नर्वस भी हो रही थी। उस दिन की सुनवाई पूरी होने के बाद महिला ने अपने बयान की एक प्रति मांगी। उसकी किसी भी बात को समिति ने नहीं माना।
१२. महिला फिर भी दिनांक २९ अप्रील को समिति के सामने उपस्थित हुई और जांच को Enquiry in Accordance with Sexual Harassment Act 2013 के प्रावधानों के तहत करने की मांग की जिसे ठुकराते हुए समिति ने बताया कि वह समिति अनौपचारिक है, उसे कोई वैधानिक दर्ज़ा प्राप्त नहीं है और ना ही वह किसी मुकदमे का अंग है। फिर महिला ने आगे की कार्यवाही में शामिल होने से इंकार कर दिया
१३. अन्त में सुप्रीम कोर्ट की अधिकारविहीन समिति ने मुख्य न्यायाधीश महोदय को क्लीन चिट देते हुए अपनी रिपोर्ट लगा दी कि महिला द्वारा लगाए गए सभी आरोप तथ्यहीन हैं।
क्या इसी को न्याय कहते हैं? सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस संविधान, कानून और लोक मर्यादा से ऊपर हैं?
समिति के रिपोर्ट के खिलाफ दर्जनों वकीलों और महिला अधिकार के लिए समर्पित संगठन के कार्यकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट के सामने प्रदर्शन किया। सभी को गिरफ़्तार करके मन्दिर मार्ग थाने में भेज दिया गया।
पीड़ित महिला को न्याय दिलाने के लिए २६ अप्रिल को Women in Criminal Law Association ने Sexual Harassment Act 2013 के प्रावधानों और धाराओं के अनुसार विधिसम्मत जांच कराकर दोषी को सज़ा देने की मांग की है। संगठन ने सुप्रीम कोर्ट के सभी पूर्व जजों को तत्संबन्धी पत्र भी भेजा है। सुप्रीम कोर्ट के ही पूर्व जज और दूसरे पूर्व जजों ने भी जस्टिस गोगोई द्वारा इस यौन उत्पीड़न की घटना की सुनवाई की पूरी प्रक्रिया को विधि विरुद्ध और अनैतिक करार दिया है।
देखते हैं पीड़ित महिला को न्याय मिलता भी है या नहीं? वैसे कानून की आंखों पर फिलहाल तो काली पट्टी बंधी है।