कविता
प्यार प्रकृति से जो कर ले
प्यार को सही पहचानेगा
नील गगन से तारे तोड़कर
क्या खोएगा क्या पायेगा
प्यार अविरल धारा में हैं
प्यार प्रकृति प्रवाह में है
प्यार सीखें परिंदों से हम
प्यार सीखे प्रकृति से हम।
विनाश किया प्रकृति का हमने
विक्राल बनाया तौबा न की हमने
हम क्या जाने प्यार होता क्या है
दिल को खिलौना मान लिया है हमने।
खुद ही बनाये जाल खुद ही फंस गए
अपने गड्ढे में खुद ही गिर गए
कैसी शिकायत किससे हम करते
आईना सामने रखकर ही तो घूमते।
दिल का टूटना हुआ पुराना
अब इससे ऊपर उठ जाना
प्रेम प्रीत की बोली जो सीखी
नील गगन और पानी से सीखी।
— कल्पना भट्ट