पिता हि धर्म: पिता हि स्वर्ग:
धर्म सचल मूर्तिवत खड़ा निज पिता रूप से जीवन में
स्वर्ग सदृश चरणों में लगता जीवन सदा सजीवन में
यद्यपि रहता वह कठोर पर कलुश नहीं उसके मन में
जीवन अर्पण कर देता वह अजब ठान उसके प्रण में
पुत्र दिखाता आंखें तो उसकी आंखें कुछ भर आतीं
अन्तर्मन आशीष बिन्दुएं रोम रोम से झर जातीं
मुकुट कलयुगी धारण कितनों किये पुत्र सम्मुख आता
दोनो हाथ उठे बरबस ही वही पुत्र जिसको भाता
हे स्थूल रूप से जीवन देने वाले स्वयं ब्रह्म
आ जाओ दुस्तर क्षण में तुम सूक्ष्म रूप से फाड खम्भ
साया रखना सदा हमारे जीवन के कन्टक मग में
सदा तुम्हारी कीर्ति रहे मेरे शब्दों से इस जग में
— सम्पूर्णा नन्द दुबे