ग़ज़ल
अब न चहरे की शिकन कर दे उजागर आइना ।
देखता रहता है कोई छुप छुपा कर आइना ।।
गिर गया ईमान उसका खो गये सारे उसूल ।
क्या दिखायेगा उसे अब और कमतर आइना ।।
सच बताने पर सजाए मौत की ख़ातिर यहां ।
पत्थरो से तोड़ते हैं लोग अक्सर आइना ।
आसमां छूने लगेंगी ये अना और शोखियां ।
जब दिखाएगा तुझे चेहरे का मंजर आइना ।।
अक्स तेरा भी सलामत क्या रहेगा सोच ले ।
गर यहां तोड़ा कभी बनके सितमगर आइना ।।
आरिजे गुल पर तुम्हारे है कोई गहरा निशान ।
अब दिखायेगा ज़माना मुस्कुरा कर आइना ।।
खुद के बारे में बहुत अनजान होकर जी रहा ।
आजकल रखता कहाँ इंसान बेहतर आइना ।।
तोड़ देंगे आप भी यह हुस्न ढल जाने के बाद ।
एक दिन बेशक़ चुभेगा बन के निश्तर आइना ।।
कुछ तो उसकी बेक़रारी का तसव्वुर कीजिये ।
जो सँवरने के लिए देखा है शब भर आइना ।।
हैं लबों पर जुम्बिशें क्यूँ इश्क़ के इज़हार पर ।
जब बताता है तुझे तेरा मुक़द्दर आइना ।।
— नवीन मणि त्रिपाठी