कहानी

कहानी – बदलती पतवार 

अजीब सी कसमसाहट सी थी। आज ! कितने बरस बाद फिर मैं आयी थी उस गाँव में। बरस बाद! हाँ लगभग बीस बरस बाद ! यादें फिर भी अभी तक  धुधँली न हुई ।
वही खपरैल से बना घर था, जिस को कुछ रंग बिरंगे कागज़ की लड़ियों से सजा रखा था । उसके चारों ओर सुन्दर फूलों की वाटिका बनी थी । गाड़ी से मेरे पैरों  को जमीन पर  रखने से पहले ही कानों  में संगीत सी बजती आवाज ” अरे बहुरिया आ गयी”।  बड़ी सी नथ पहने एक गोरे रंग की महिला ने आ हम दोनों की आरती कर, बलैया ली, मेरे माथे को चुम लिया था । तुम ने पैर छूने का इशारा किया,मैंने पैर छू लिये थे ,उस महिला के। ये मेरी माँ है ! तुमने कहाँ था । और मैं देखती रही थी अनमनी सी ,कुछ ना कह झुक गयी थी ।
अन्दर जा कर एक छोटे से कमरे में जिस में एक पलंग बिछा था मुझे बैठा दिया गया था । गाँव की औरतें आ कर झाँक जाती थी बीच -बीच में।
मेरी सास उनको मेरे बारे में बताने लगती । वो जिनके  साथ मैं आयी थी ,मुझे बैठा, न जाने कहाँ चले गये थे ? आधे घन्टे की प्रतीक्षा के बाद दोनों आये हाथ मे खाने का थाल   लिये । देखो माँ ने कितना कुछ बनाया है तुम्हारे लिए ! तुमने हँसते हुए कहा था,
सुबह से कुछ नहीं खाया था । कहने भर की देर थी ,मैं खाने मे लगी थी । खाना बड़े से थाल में कटोरी रख कर परोसा गया था ।  खाना देखने में कुछ अजीब सा लग रहा  था ,पर खाने में बहुत स्वाद था । “बहुरिया को सुबह से भुखा ही रखा था क्या “?खनखनाती हँसी में बोल वो बाहर  निकल गयी  थी। हम दोनों खाते रहे और वो गरम गरम ला हमें  खिलाती रही थी ।
बस कुछ दिनों  तक उनका प्यार दुलार चलता रहा। दस  दिन न जाने कैसे निकाले थे बेमन से । जब कुछ समय माँ के पास मुझे छोड़ तुम जाने लगे ,तब मैंने साफ मना कर दिया था। “इस गाँव मे रहने के लिए तुम से शादी नही की थी मैंने , मैं भी साथ जाऊँगी तुम्हारे! आखिर इस गाँव में रखा ही क्या है”।
मैं ठहरी बड़े घर की बेटी ,भला यहाँ इस झोपड़ी से घर में कैसे रहूँगी । मेरे मन में अपने मयके को लेकर एक गुमान जो था । और तुम्हारे साथ प्रेम विवाह कर आ गयी थी ।बस तुम्हारी काबलियत पर मैं मोहित हो गयी थी। पापा की लाड़ली को विदा करते, पापा ने कह ही दिया था,”मेरी बेटी  लाड़ -प्यार से पली है । कुछ भी परेशानी हो तो मैं हूँ उसके साथ “! उस बात ने मेरे हौसलें अधिक बढा दिये । मैंने सब अपनी ही मर्जी चाही । दूसरों का मन कभी नहीं जानना चाहा ।
माँ ने शायद हमारी बात सुन ली थी, तुम्हारे मना करने पर भी उन्होंने तुम्हारे साथ मुझे भेज दिया था  । “अरे पगले अभी तुम दोनों को साथ रहना चाहिए “। और मैं तुम्हारे ना चाहते हुए ,वहाँ से तुम्हारे साथ आ गयी थी ।
अब ये सिलसिला चल निकला था। जब भी तुम माँ के पास जाने की बात करते मैं कोई ना कोई बहाना बना टाल देती। और तुम अकेले ही चले जाते थे ।  नये महमान की खबर पा जब तुम उन को यहाँ ले आये थे,माँ  कितनी खुश हुई थी, और कितने आशीष दिये थे मुझे । मेरी दिन रात सेवा की थी ।
फिर भी ना जाने क्यों , मैंने उन को अपने बेटे के ही घर में महमान बना दिया था ।कभी उन को अपना घर नही समझने दिया था। उन को हर छोटी, बड़ी बात में नीचा दिखाती थी। उनकी प्यार भरी मनुहार , मेरे नखरे उठाने मुझे बनावटी लगने लगे थे ।जो भी वो बोलती मैं उलटा ही बोलती थी। फिर भी वह सहज होकर  मेरी देखभाल करती । और तुम सब कुछ समझ देख कर भी अनसुना ,अनदेखा करते । मन में दुखी होते पर कहते कुछ नहीं। और दिन पर दिन हमारे बीच का रिश्ता खोखला होता गया ।
उस के बाद जब वो गयी कभी नही आयी ।हाँ उन की भेजी चीजें जरूर यहाँ आती रही थी । और इस तरह जिन्दगी गुज़रती गयी तुमने अब मुझे कुछ कहना भी बन्द कर दिया था । शायद तुम अन्दर ही अन्दर घुलते रहे थे । और मैं जाने अनजाने बेपरवाह सी ही बनी रही अपनी मस्ती में ,
हम दोनो के बीच एक खामोशी की रेखा खिंच सी गयी थी । हमारा  खोखला रिश्ता एक ऐसी कश्ती में सवार  हो गया था, जिसको  खेना हमारी नियती सी बन गयी थी । जो रिश्ता खो दिया था । मन उस के लिए आज विचलित क्यों है ? शायद अब  तक जिस कश्ती को हम बिना पतवार के खे रहे थे आज  पतवार से खेकर किनारे लगने का समय आ गया था ।
  “माँ तुम जल्दी ही ठीक हो जाओगी”। तुम्हारे शब्द सुन जैसे मैं निंद्रा से जागी थी । उन्होनें हल्के से हाथ उठ आशीर्वाद दिया ।मेरी ओर देख मुस्कुरायी । देखो मीना माँ जब तक ठीक  हो जाती है मैं यहीं रहूँगा। मैंने हठात ही माँ के निकट जाकर उन का हाथ पकड़ कहा  “रवि जब तक माँ ठीक नहीं हो जाती हम यहीं रहेंगे ” ।
— बबीता कंसल

बबीता कंसल

पति -पंकज कंसल निवास स्थान- दिल्ली जन्म स्थान -मुजफ्फर नगर शिक्षा -एम ए-इकनोमिकस एम ए-इतिहास ।(मु०नगर ) प्राथमिक-शिक्षा जानसठ (मु०नगर) प्रकाशित रचनाए -भोपाल लोकजंग मे ,वर्तमान अंकुर मे ,हिन्दी मैट्रो मे ,पत्रिका स्पंन्दन मे और ईपुस्तको मे प्रकाशित ।