लेखस्वास्थ्य

पशु भी बीमार होते हैं – खुरपका मुंहपका रोग

बीमार हम और आप ही नहीं बल्कि पशु भी पड़ते हैं। बस अंतर यह होता है कि यदि वे घरेलू हैं तो फिर भी उनका उपचार हो जाता है, लेकिन आवारा हैं तो उपचार भाग्य भरोसे है। पशुचिकित्सालय पहुंचा दिए गए, तो इलाज हो जाएगा अन्यथा मृत्यु उनके लिए भी अंतिम सत्य है। कृषि वैज्ञानिक और पशुचिकित्सक दोनों ही अपने अपने स्तर पर पशुओं की बीमारियों को लेकर निरंतर शोध करते रहे हैं। अतः पशुओं की बीमारियों पर भी गहन अध्ययन होते रहते हैं, उनके कारण और समाधान समय समय पर निकलते रहते हैं।

हाल ही में शोध पत्रिका प्लास वन में ऐसा ही एक पशु रोग संबंधी शोधपत्र प्रकाशित हुआ है जिसमें पशुओं में होने वाले संक्रामक विषाणुजनित रोग खुरपका व मुंहपका रोग के आनुवांशिक स्तर पर कारण खोजने में सफलता मिली है। यह शोध विशेषरुप से सराहनीय इसलिए है क्योंकि बरसात आते ही यह रोग पशुओं में खतरनाकतौर पर बढ़ जाता है।  मुंहपका खुरपका रोग विषाणु के सात सीरोटाइप होने के कारण इसके विरुद्ध कोई एक टीका बनाना कठिन है। कई बार पारम्परिक टीकों का असर भी नहीं होता है। इन टीकों में जीवंत विषाणु होते हैं और कई बार टीका लगाने से भी बीमारी फैल जाती है। यह विषाणु पशुओं की लसिका ग्रंथियों और अस्थिमज्जा में भी जीवित रह जाता है, इसलिए इसको जड़ से समाप्त करना मुश्किल होता है।

इस रोग का उपचार अब तक संभव नहीं हो सका है, इसलिए रोकथाम ही सबसे कारगर नियंत्रण का उपाय है। अतः हमेशा पशुपालकों को यह परामर्श दिया जाता है कि वे अपने चार महीने से ऊपर उम्र के सभी पशुओं निश्तित रुप से  टीका लगवाएं। प्राथमिक टीकाकरण के चार सप्ताह के बाद पशु को बूस्टर/वर्धक खुराक दी जाती है और प्रत्येक 6 महीने में नियमित टीकाकरण करना पड़ता है। नये पशुओं को झुंड या गाँव में मिश्रित करने से पूर्व सिरम से उसकी जाँच आवश्यक होती है। केन्द्रीय प्रयोगशाला, मुक्तेश्वर, उत्तराखंड एवं एआइसीआरपी हैदराबाद, कोलकत्ता, पुणे, रानीपेत, शिमला एवं तिरुवनंतपुरम केन्द्रं पर इसकी जाँच की सुविधा उपलब्ध है। इन नए पशुओं को कम से कम चौदह दिनों तक अलग बाँध कर रखना होता है तथा भोजन एवं अन्य प्रबन्धन भी अलग से ही किए जाते हैं। इसके साथ ही पशुओं को पूर्ण आहार देना जरुरी होता है, जिससे  उनको खनिज एवं विटामीन की मात्रा पूर्ण रूप से मिलती रहे।

खुरपका व मुंहपका रोग से पीड़ित पशुओं के लक्षणों में उनको तेज बुखार होना, मुंह से लार निकलना, मुंह व खुरों में छाले पड़ना, लंगड़ाकर चलना शामिल हैं। इसके अलावा पशुओं की कार्यक्षमता क्षीण हो जाती है। वे खाना पीना भी कम कर देते है जिससे जल्दी ही वे कमजोर हो जाते हैं। इस रोग का समय से इलाज न मिलने पर पशुओं की मौत भी हो जाती है।

ग्रामीणइलाकों में यह रोग स्वस्थ पशु के बीमार पशु के सीधे संपर्क में आने, पानी, घास, दाना, बर्तन, दूध निकालने वाले व्यक्ति के हाथों से, हवा से तथा लोगों के आवागमन से फैलता है। रोग के विषाणु बीमार पशु की लार, मुंह, खुर थन में पड़े फफोलों में अधिक संख्या में पाए जाते हैं। यह विषाणु खुले में घास, चारा, तथा फर्श पर चार महीनों तक जीवित रह सकते हैं। लेकिन तापमान बढ़ने से यह बहुत जल्दी नष्ट भी हो जाते हैं। यह विषाणु जीभ, मुंह, आंत, खुरों के बीच की जगह, थनों तथा घाव आदि के द्वारा स्वस्थ पशु के रक्त में पहुंचते हैं और लगभग 5 दिनों के अंदर उसमें बीमारी के लक्षण पैदा करते हैं।

प्लाज वन में प्रकाशित शोध में खुरपका मुंहपका रोग निदेशालय, मुक्तेश्वर, नैनीताल, एबीआईएस डेयरी, राजनांदगांव, छत्तीसगढ़  और अमेरिकी प्लम आइलेंड एनिमल डिसीज सेंटर, ग्रीनपोर्ट के शोधकर्ताओं द्वारा इस अध्ययन में एक संगठित डेयरी फ़ार्म पर मवेशियों और भैंसों में प्राकृतिक रूप से होने वाले लगातार संक्रमण फैलाने वाले एफएमडीवी सीरोटाइप ओ/एमई-एसए/इंड2001डी नामक उप-वंशावली के विषाणु के आनुवंशिक और प्रतिजनी विविधताओं के विश्लेषण किए गए हैं।

भारतीय कृषिवैज्ञानिकों ने इस रोग विषाणु के फैलने के लिए जिम्मेदार आनुवांशिक और पारिस्थितिकी कारकों का पता लगाने में सफलता पाई है। यह पाया गया है कि मवेशियों और भैंस में मिले विषाणुओं के आरएनए में कोई अंतर नहीं था। लेकिन मवेशियों में इनकी मात्रा अधिक थी, जबकि भैंस में ये काफी देर तक रहते पाए गए। रोगवाहक पशु के अंदर पाए जाने वाले वाहक विषाणुओं की आनुवांशिक और प्रतिजैनिक संरचनाओं में भी परिवर्तन देखा गया। विषाणु की आनुवांशिक और प्रतिजन संरचनाओं में परिवर्तन का प्रभाव संभावित रूप से संक्रमित मवेशियों और भैंसों के बीमार होने पर पड़ता है।

वाहकों के अंदर मिलने वाले खुरपका मुंहपका विषाणु लगातार संक्रमित होने वाले प्रजाति विशेष के पशुओं और उनकी विविध प्रजातियों वाले झुंडों में अपने विकास के लिए अलग-अलग मार्गों का अनुसरण करते हैं। यह दर्शाता है कि प्रजातियों और / या एक पशु में भी विषाणु पर संक्रमण फैलाने के लिए मार्ग चुनने के कई विकल्प होते हैं। अध्ययन में अतिसंवेदनशील मवेशियों और भैंसों में खुरपका मुंहपका विषाणु के लगातार संक्रमण फैलाने वाले विषाणवीय और वाहक कारकों की भूमिका आरएनए संरचना में  देखे गए बदलावों के माध्यम से स्पष्ट हुई है।

इस रोग पर सफलतापूर्वक नियंत्रण के लिए संक्रमित पशु, वैक्सीन लगे पशु और रोगवाहक पशु में भेद करना बड़ी चुनौती है। पशु को जब इसका टीका लगाया जाता है, तो वायरस प्रोटीन तुरंत ही सुरक्षात्मक प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया शुरु कर देते हैं। पहली बार इस अध्ययन में वायरस के आनुवांशिक पदार्थ आरएनए में हुए उत्परिवर्ती और प्रतिजनी बदलावों के आधार पर संक्रमित और संक्रमणवाहक पशुओं में वायरस के पारिस्थितिकीय विकास का अध्ययन किया गया है।

पचास प्रतिशत से अधिक खुरपका मुंहपका-संक्रमित पशु स्थायी संक्रमण वाहक बन जाते हैं। अभी तक नए स्वस्थ पशुओं में रोग पैदा करने के लिए संक्रमण वाहकों की भूमिका स्पष्ट रूप से समझ में नहीं आई थी। इस अध्ययन से वाहक अवस्था के दौरान विषाणु में वाहक के अंदर और पशुओं के झुंड के भीतर उसमें होने वाले विकास को समझने में सहायता मिली है। प्रभावी नियंत्रण रणनीतियों को तैयार करने के लिए खुरपका मुंहपका रोग विषाणु के महामारी विज्ञान को समझना बहुत आवश्यक है। इसलिए इस रोग से प्रभावित स्थानिक क्षेत्रों में खुरपका मुंहपका रोग पारिस्थितिकी की समझ में सुधार बीमारी के नियंत्रण के लिए आधार प्रदान करेगी।

डॉ. शुभ्रता मिश्रा

डॉ. शुभ्रता मिश्रा वर्तमान में गोवा में हिन्दी के क्षेत्र में सक्रिय लेखन कार्य कर रही हैं । उनकी पुस्तक "भारतीय अंटार्कटिक संभारतंत्र" को राजभाषा विभाग के "राजीव गाँधी ज्ञान-विज्ञान मौलिक पुस्तक लेखन पुरस्कार-2012" से सम्मानित किया गया है । उनकी पुस्तक "धारा 370 मुक्त कश्मीर यथार्थ से स्वप्न की ओर" देश के प्रतिष्ठित वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है । इसके अलावा जे एम डी पब्लिकेशन (दिल्ली) द्वारा प्रकाशक एवं संपादक राघवेन्द्र ठाकुर के संपादन में प्रकाशनाधीन महिला रचनाकारों की महत्वपूर्ण पुस्तक "भारत की प्रतिभाशाली कवयित्रियाँ" और काव्य संग्रह "प्रेम काव्य सागर" में भी डॉ. शुभ्रता की कविताओं को शामिल किया गया है । मध्यप्रदेश हिन्दी प्रचार प्रसार परिषद् और जे एम डी पब्लिकेशन (दिल्ली)द्वारा संयुक्तरुप से डॉ. शुभ्रता मिश्राके साहित्यिक योगदान के लिए उनको नारी गौरव सम्मान प्रदान किया गया है। इसी वर्ष सुभांजलि प्रकाशन द्वारा डॉ. पुनीत बिसारिया एवम् विनोद पासी हंसकमल जी के संयुक्त संपादन में प्रकाशित पूर्व राष्ट्रपति भारत रत्न कलाम साहब को श्रद्धांजलिस्वरूप देश के 101 कवियों की कविताओं से सुसज्जित कविता संग्रह "कलाम को सलाम" में भी डॉ. शुभ्रता की कविताएँ शामिल हैं । साथ ही विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में डॉ. मिश्रा के हिन्दी लेख व कविताएं प्रकाशित होती रहती हैं । डॉ शुभ्रता मिश्रा भारत के हिन्दीभाषी प्रदेश मध्यप्रदेश से हैं तथा प्रारम्भ से ही एक मेधावी शोधार्थी रहीं हैं । उन्होंने डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर से वनस्पतिशास्त्र में स्नातक (B.Sc.) व स्नातकोत्तर (M.Sc.) उपाधियाँ विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान के साथ प्राप्त की हैं । उन्होंने विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन से वनस्पतिशास्त्र में डॉक्टरेट (Ph.D.) की उपाधि प्राप्त की है तथा पोस्ट डॉक्टोरल अनुसंधान कार्य भी किया है । वे अनेक शोधवृत्तियों एवम् पुरस्कारों से सम्मानित हैं । उन्हें उनके शोधकार्य के लिए "मध्यप्रदेश युवा वैज्ञानिक पुरस्कार" भी मिल चुका है । डॉ. मिश्रा की अँग्रेजी भाषा में वनस्पतिशास्त्र व पर्यावरणविज्ञान से संबंधित 15 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं ।