पुस्तक समीक्षा : आदमीयत को जिंदा रखने की प्रेरणा देती है ग़ज़ल संग्रह ‘इन दिनों’
पुस्तक का नाम- इन दिनों
रचनाकार-श्री कृष्ण गोपाल ‘राही’
संस्करण-प्रथम
प्रकाशक-मीरा पब्लिकेशन प्रयागराज
कीमत-250
देश के वरेण्य रचनाकार श्री कृष्ण गोपाल ‘राही’ यूं तो अपनी कलम के तेवर के चलते किसी परिचय के मोहताज नही हैं उनके द्वारा विरचित ग़ज़ल संग्रह ‘इन दिनों’ को पढ़ने का सुयोग प्राप्त हुआ। प्रस्तुत कृति में समाहित रचनाओं का विहंगावलोकन कर मन रचनाकार की संरचना पर कुछ लिखने को समुद्यत हुआ। इस कृति में सामाजिक सरोकार, राष्ट्र चिन्तन, सामाजिक विद्रूपता, पर्यावरण समरसता एवं नैतिक क्षरण से संबंधित रचनाओं का सम्व्यूहन हुआ है। जिसके प्रस्तुतीकरण में श्री कृष्ण गोपाल ‘राही’ जी सर्वथा प्रशंसनीय हैं। तेजी से बदलते दौर बदलती दुनिया बदलते इंसान के प्रति चिंतनीय भावना से राही जी लिखते हैं-
दौर-ए-दहशत है मुकम्मल इस तरह,
वक़्त भी ठहरा दिखाई दे रहा है
मिट रही पहचान सी नज़रों की अब,
चेहरे पर चेहरा दिखाई दे रहा है।
वस्तुतः ग़ज़ल में भी सलीके के साथ समाज एवं मानवीय संवेदना के कहे अनकहे पहलुओं को खूबसूरती के साथ लिखने का कार्य किया गया है। कृष्ण गोपाल राही की ग़ज़ल लेखनी में मामूली दृश्यों, भावों एवं सामान्य व्यावहारिक जीवन में घट रही घटनाओं को प्रतीकों व बिम्बों में ढाल देने की श्लाघनीय सामर्थ्य है। आज समाज जहाँ असत् मार्ग पर चलते हुए नैतिक मूल्यों को तिलांजलि देता हुआ दृष्टिगोचर होता है वहाँ कृष्ण गोपाल राही जी इन प्रसंगों को लेकर अत्यंत चिंतित हैं इसीलिए ऐसे सन्दर्भ उनकी रचनाओं में प्रश्न सदृश उभरे हैं। क्योंकि रचनाकार आश्वस्त भी है कि एक न एक दिन इसका समाधान स्वयं उपस्थापित हो सकेगा। रचनाकार चिंतित तो हैं पर हताश और उदास नही और लिख रहे हैं-
उदास रात बहुत है खुशी की बात करो,
तुम अपनी बात करो या किसी की बात करो।
अंधेरी रात है, खामोशी है, तन्हाई है,
यही है वक़्त मुकम्मल इसी की बात करो।
कभी – कभी आम आदमी के जिंदगी इतनी वेदनाओं का आगमन हो जाता है कि वह छटपटा उठता है और कुछ गलत कदम उठाने की सोचता है तब ऐसे ही लोगों में उर्जा का संचार करती हैं राही जी कि यह पंक्तियां-
जिंदगी जीना है तो ज़हमत उठाना चाहिये
जब लगा रोया किये अब मुस्कराना चाहिये।
इस कदर मायूस हो कर बैठना अच्छा नहीं
बोझ बढ़ता जा रहा है मिलकर उठाना चाहिये।
रचनाकार कृष्ण गोपाल राही जी मानो प्रकृति से ही ग़ज़लकार हैं उनकी ग़ज़लें हृदय से निकलती हैं और पाठक या श्रोता से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संवाद स्थापित करती हैं शायद यही उनके ग़ज़लात्मकता की विशेषता है इसकी बानगी देखिए –
वो जाते जाते मुझे बार बार देखते रहे,
मरीज मर गया, फिर भी बुखार देखते रहे।
लुटी थीं गोपियाँ, जंगल के बीच भीलों से,
कि पार्थ जैसे धनुर्धारी, हार देखते रहे।
श्री राही चूंकि बाकमाल और हुनरमंद ग़ज़लकार हैं, भाषा पर अधिकार रखते हैं, शब्दों के पारखी हैं और सौभाग्य से ग़ज़ल के विशिष्ट विधान से अवगत हैं, इसलिए उनकी ग़ज़लो में विविधता सरलता देखी जा सकती है। उम्र के 70 बसंत देख चुके श्री राही की ग़ज़लें ताउम्र के उनके निजी एवं समाज से मिले खट्टे मीठे अनुभव को खुद में समेट हुए है।श्री राही साहित्यिक, धार्मिक, सामाजिक अनुष्ठानों एवं गतिविधियों में संपूर्ण समर्पण भाव के साथ सक्रियता के लिए जाने जाते हैं। देश के विविध आकाशवाणी केंद्र दूरदर्शन केंद्रों से उनकी रचनाओं का प्रसारण हो रहा है। ऐसा ग़ज़ल संग्रह देश और समाज को भटकाव भरे रास्तों से निकाल कर सही दिशा में लेकर जाने मे अपना महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है। मैं आशीष तिवारी निर्मल श्री राही जी को बधाई देते हुए आशा करता हूँ पुनः किसी नये ग़ज़ल संग्रह के साथ वो आदमीयत को जिंदा रखने का सुघड़ संदेश आमजन मानस को देंगे।
समीक्षक — आशीष तिवारी निर्मल