झारखण्ड में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस
स्वतन्त्रता संग्राम के महानायक नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का झारखण्ड से गहरा नाता था।नेता जी के झारखण्ड में सक्रियता का उल्लेख झारखण्ड के इतिहास में उल्लेख है। 1920 के दशक में एक बार टाटा स्टील के मैनेजमेंट और कर्मचारियों के बीच गहरा विवाद हो गया।नेताजी जमशेदपुर आए और कर्मचारियों की अगुआई में मैनेजमेंट के साथ समझौते की शर्तें तय कीं।इसके बाद जमशेदपुर लेबर एसोसिएशन के नेता बने जिसके कारण इनका जमशेदपुर आना-जाना लगा रहा। उन्होंने धनबाद में भी कर्मचारियों के हक की लड़ाई लड़ी और यहाँ देश की पहली रजिस्टर्ड मजदूर यूनियन की शुरुआत कर अध्यक्ष पद को सँभाला । इसी बीच स्वतन्त्रता आंदोलन में उनकी सक्रियता बढ़ी।ततपश्चात उनकी सिंह गर्जना राँची की पहाड़ियों के सीने में सीधे आ टकराई ।समय था सन 1940 में रामगढ़ में 53 वें अधिवेशन का ।
कई विद्वजन कहते हैं कि यह वही समय था जब नेताजी ने अपने ओजपूर्ण भाषण से रामगढ़ की जनता के हृदय में ओज,उमंग,
उत्साह और शौर्य का संचार किया था।
“दिल्ली चलो”-का नारा लगाते हुए मार्च की शुरुआत उन्होंने यहीं से की थी और उनके साथ कदम मिलाकर चल पड़े थे उनके परम मित्र श्रीमान् फणीन्द्रनाथ आयकत डॉ. एफ. एन. चटर्जी और डॉ. एस. मुखर्जी,चेला स्वरूप मुरली मनोहर बोस,यदुगोपाल मुखर्जी सहित हजारों झारखण्ड ( तत्कालीन बिहार )की जनता। सबके आँखों में एक ही सपना था-भारत की आजादी।मन में उमंग और हृदय में जोश लिए नवयुवकों की निकल पड़ते थे झारखण्ड की गलियों और चौराहों में।चारों और आवाजें गूंज उठी थी-
बढ़े चलो रुको नहीं सुवीर धीर देश के।
बढ़े चलो सुवीर्यवान वीर हो स्वदेश के।
अनंत ओज से भरा महीप के समान हो।
विराट हो प्रचंड हो सनातनी महान हो।।
विद्वानों का कहना है कि स्वाधीनता आंदोलन के दौरान नेताजी कई बार झारखण्ड आए। उन दिनों उनकी ट्रेन चक्रधरपुर में ही रुकती थी। नेताजी वहीं उतरते और अपने राँची के मित्र डॉ. पी.एन.चटर्जी की फिएट कार में चढ़कर वन्य संस्कृति की रुपहली तस्वीर देखते -देखते सीधे राँची के लालपुर स्थित फणीन्द्रनाथ आयकत जी के बंगले में पधारते।फणीन्द्रनाथ आयकत जी सपरिवार नेताजी का गर्मजोशी के साथ स्वागत करते और नेताजी के यात्रा की थकान पल भर में उड़नछू हो जाती। घर की महिलाएँ नेताजी के सामने पारंपरिक भोजन की थालियाँ परोसती।उसके बाद शुरू होती रामगढ़ अधिवेशन की रूपरेखा तैयार करने का सिलसिला।
इस महान वार्ता में नेताजी के साथ शामिल होते थे उनके परम मित्र फणीन्द्रनाथ आयकत जी,डॉ. एफ. एन. चटर्जी,डॉ. एस. मुखर्जी और कई आत्मीय जन। रामगढ़ अधिवेशन के लिए प्रचुर मात्रा में धनराशि की जरूरत थी। कहाँ से जुटेगी धनराशि ? एक बड़ा प्रश्न चिह्न सामने खड़ा था।
पेशे से कांट्रेक्टर देशप्रेमी फणीन्द्रनाथ जी आगे आए और इस शुभ काम में नेताजी का साथ देने का संकल्प लिया। हालाँकि अंग्रेजों ने उन्हें पश्चिम बंगाल से राँची बुलाकर साढ़े तीन एकड़ परिसर वाले बड़े बंगले में उनके ठहरने की व्यवस्था करके रायबहादुर की पदवी से नवाजा था लेकिन उन्होंने देश की आज़ादी के लिए नेताजी का साथ देना अपना पहला कर्तव्य समझा और चालीस हज़ार की धनराशि दान में दे दी।
रामगढ़ अधिवेशन की तैयारियाँ होने लगीं।इसी बीच राँची के कचहरी रोड स्थित स्वतन्त्रता सेनानी अब्दुल बारी पार्क में नेताजी का नागरिक अभिनंदन किया गया और फिरायालाल के निकट लोहरदगा लॉज में उन्होंने कई साहित्यकारों और शिक्षाविदों के साथ बैठक की।
राँची की जनता नेताजी से मिलकर मानो निहाल हो गई।
जैसे-जैसे अधिवेशन का समय करीब आ रहा था वैसे-वैसे बैठकों का सिलसिला बढ़ता गया।नेताजी अपने तथाकथित मित्रों के साथ
हज़ारीबाग गए और तीन दिनों तक वहाँ स्थित बी.एन. घोष लॉज में ठहरकर रामगढ़ और खूँटी के देशभक्तों से मिले,बैठकें कीं।
रामगढ़ का अधिवेशन सफल रहा और नेताजी अपने घर वापस लौटे।
इसके बाद नेताजी पुनः झारखण्ड पधारे लेकिन इस बार उनका ठिकाना झरिया और धनबाद रहा। यहाँ नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने धनबाद की जनता के हृदय में आज़ादी की लौ जलाई । नेताजी कभी अपने भतीजे श्री अशोक बोस और डॉ.शिशिर बोस तो कभी कॉस्मो पॉलीटन होटल और कभी धनबाद के स्वतंत्रता सेनानी ठाकुर प्रसाद जी के घर पर स्वाधीनता- आंदोलन की रणनीति बनाते थे। कॉस्मो पॉलीटन होटल के संचालक भी इनके खास करीबी रहे। जब अंग्रेजों ने नेताजी को अपने आवास में नज़रबंद किया था उस दौरान वह वहाँ से जियाउद्दीन नामक पठान का वेश धर के 14 जनवरी 1941 को धनबाद पहुँचे।
नेताजी की इच्छा थी कि धनबाद के उनके कई करीबी मित्र उनके साथ जर्मनी जाएँ मगर धनबाद में आंदोलन की गति तेज करने के लिए उनके करीबी मित्रों ने धनबाद में ही रुकना वाजिब समझा।कुछ लोग कहते हैं कि नेताजी एक बैलगाड़ी पर सवार होकर गोमो के लिए रवाना हुए मगर कुछ लोगों का कहना है कि नेताजी डॉ. शिशिर बोस के साथ अपने वेंडर कार से गोमो पहुँचे।वहाँ ये अंग्रेजी फौजों और जासूसों से नज़र बचाकर हटियाटांड़ के आसपास घने जंगलों में छिपे रहे।उसके बाद पुराना बाज़ार में स्थित अब्दुल्ला के घर में रुककर उन्होंने स्वतन्त्रता आंदोलन संबंधित कार्यक्रम की तैयार रूपरेखा पर विचार-विमर्श किया। स्वतन्त्रता सेनानी अलीजान और वकील चिरंजीव बाबू इनके साथ थे और 18 जनवरी 1941 की रात साथियों ने उन्हें काबुलीवाले के वेश में गोमो स्टेशन से कालका मेल से पठानकोट के लिए रवाना किया।वहाँ से वे काबुल गए। वहाँ से बर्लिन और कुछ समय बाद पनडुब्बी का सफ़र तय कर जापान पहुँचे।
जहाँ भी पहुँचे होंगे नेता जी लेकिन भारतीय जनता पलक-पाँवड़े बिछाकर इनका इंतज़ार करती रही। झारखण्ड में रहने वाली इनकी तथाकथित मित्रमण्डली और लाखों चहेतों को आज भी झारखण्ड की पहाड़ियों और जंगलों में इनकी सिंह-गर्जना की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है- “दिल्ली चलो।”
— ममता बनर्जी “मंजरी”