सन्नाटा
अजीब खामोशी पसरा
तेरे शहर की गलियों में
न जाने कितने
घर का चिराग बुझा गये
चमकी तेरे रखवालो ने।
जब से छोटू गया
कुछ अच्छा नही लगता
सोते जागते
उसी का चेहरा दिखता।
सोचो जरा जिन घरों
से छोटू हो गये गायब
कितना सन्नाटा होगा
उस घर के आंगन में।
कुछ दिनों से दोपहर को
गलियो में बच्चों की भीड़
गायब ही रहती
वो हँसी ठिठोली उछल-कूद
अब नदारद ही रहती।
जबसे फैला है यह प्रकोप
गाछी और बगीचा है खाली
पेड़ की टहनियाँ देखो लिब रहा
फिर भी बच्चे उनसे दूर हो रहा।
ठोस पहल की आस में
परिजन है टकटकी लगाये
अस्पतालो में बाबूओ के
खूब चक्कर भी लगाये।
कोई हल नहीं दिखता
एक प्रभू तेरे सिवाय
चमकी की निजात का
हल अब तू ही बताय।
— आशुतोष