सरसी छंद गीत – मुखौटा
विविध भाँति के सजा मुखौटे,जग में खुली दुकान ।
भीतर कौन छुपा है कैसे, हो किसकी पहचान ।
हर कोई है लेने वाला ,भारी लगती भीड़ ।
मुख पर ओढ़ मुखौटा चलते ,नहीं समझते पीड़ ।
अहसासों का विक्रय करके ,बनते हैं धनवान ।
भीतर कौन छुपा है कैसे, हो किसकी पहचान ।
इन्ही मुखौटों बीच छुपे कुछ ,कुटिल भाव के लोग ।
विवश हृद की विवशताओं का ,करते हैं उपभोग ।
छल ,बल का व्यवसाय चलाते ,नकली धर मुस्कान ।
भीतर कौन छुपा है कैसे, हो किसकी पहचान ।
प्रतिघातों से और घात से ,खेलें निशिदिन खेल ।
स्वप्न नैन से छीन लिए ज्यों ,प्रथक दिए से तेल ।
क्या बिसात है शर्म लाज की , बेंच दिया ईमान ।
भीतर कौन छुपा है कैसे, हो किसकी पहचान ।
हाँ..हम भी क्या रहे अछूते ,उलझ मुखौटों बीच ।
दाग लगा अपने तन भी जब ,डाला कंकड़ कीच ।
हाथ किये कालिख में काले ,मिटा मान सम्मान ।
भीतर कौन छुपा है कैसे, हो किसकी पहचान ।
— रीना गोयल ( हरियाणा)