पंख मुझसे छीन ली
आईने में देख मुखड़ा
मुस्कराया मैं, मेरा मन
खूबसूरत हूँ नही पर
फ़र्ज़ी अहंकार में मैं
हाव-भाव देख मेरा
पिजरे में हलचल हुआ
देखने से पहले ही
तोता व्यंग बाण छोड़ा
देखने में खूबसूरत
काश होता दिल से तू
ज़िन्दगी बख़्शी ख़ुदा ने
माना पालनहार तू
पिजरे में मुझको फंसाकर
पंख मुझसे छीन ली
भाषा का रट्टा लगाकर
ज्ञान मेरी छीन ली
देख सर्कस में तुझे
वाकिब-ए-फितरत हुआ
शेर,हाथी और भालू
हो जाते चाबुक से चालू
कुछ और नही इसको कहता
जीवों पर है अत्याचार
जीत नहीं यह मानव जाति का
वास्तविक अर्थों में है हार।।