धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

आर्यसमाज के विद्वानों, नेताओं तथा कार्यकर्ताओं को निःस्वार्थ भाव से एवं निर्भीकतापूर्वक वेदों का प्रचार करना चाहिये

ओ३म्

महर्षि दयानन्द के आगमन से लोगों को यह ज्ञात हुआ कि विद्या व ज्ञान भी सत्य एवं असत्य दो प्रकार का हो सकता है। हम बचपन में माता-पिता द्वारा की जाने वाली मूर्तिपूजा एवं अल्पज्ञ मनुष्यों द्वारा रचित प्रार्थनाओं व आरती आदि करते थे। ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों के स्वाध्याय एवं आर्य विद्वानों के प्रवचनों को सुनकर हमें यह ज्ञात हुआ कि मूर्तिपूजा व मनुष्यरचित आरतियों का गायन ईश्वर भक्ति व उपासना के अन्तर्गत नहीं आता अपितु यह अविद्या व अज्ञान है। इससे लाभ न होकर मनुष्य को हानि होती है। इसका कारण यह है कि मूर्ति जड़ होती है। उससे अपने कल्याण सुखों की अपेक्षा करना अज्ञान अन्धविश्वास है। यदि हमें अपना कल्याण करना है तो हमें अपने से अधिक ज्ञानी किसी चेतन विद्वान व अद्वितीय सत्ता ईश्वर को प्राप्त होना होगा। ईश्वर का सत्यस्वरूप सृष्टि के आद्य ग्रन्थ ईश्वर प्रदत्त ज्ञान चार वेदों में उपलब्ध होता है। वेदों के ऋषियों द्वारा उपनिषद एवं दर्शन आदि ग्रन्थों में किये गये वेदानुकूल व्याख्यान भी मनुष्यों का ज्ञानवर्धन करते हैं। वेदों का यह ज्ञान ही मनुष्यों के लिये हितकर एवं कल्याणदायक होता है। अतः चेतन, आनन्दस्वरूप तथा वेद प्रतिपादित ईश्वर का अध्ययन व उसके अनुसार ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना को करना ही सत्य व ज्ञानोचित कर्म होता है तथा जड़ पदार्थों व उनसे बनी किसी आकृति व मूर्ति आदि में ईश्वर की भावना रखकर उसको पूजना व उपासना करना अर्थात् मूर्ति पर जल, पत्र, फल आदि पदार्थों को चढ़ाना इष्ट फल व परिणामदायक नहीं होता।

अविद्वान वह होता है जिसको अल्प ज्ञान व विपरीत ज्ञान होता है। विद्वान उसे कहते हैं जो सत्य ज्ञान से युक्त होता है। सत्य ज्ञान का पुस्तक ईश्वरीय ज्ञान वेद है। हमारी यह सृष्टि 1.96 अरब से कुछ अधिक वर्ष पुरानी है। इतने वर्ष पूर्व सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने अमैथुनी सृष्टि कर स्त्री व पुरुषों को उत्पन्न किया था और उन्हें ज्ञान प्रदान करने के लिये चार पवित्र आत्माओं अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को चार वेदों का ज्ञान दिया था। इन्हीं चार ऋषियों से वेदों का यह ज्ञान ब्रह्मा जी के माध्यम से समस्त मनुष्यों को प्राप्त हुआ और वही परम्परा वर्तमान समय तक चली आ रही है। वेदां का ज्ञान ईश्वर प्रदत्त होने से उसमें ईश्वर व संसार के सभी पदार्थों का सत्य-सत्य ज्ञान है। मनुष्य अल्पज्ञ होता है। वेदज्ञानरहित मनुष्य कितना अध्ययन, चिन्तन व मनन क्यों न कर ले, वह वेदज्ञानी ऋषि व विद्वान् के तुल्य ज्ञानी नहीं हो सकता। सभी मनुष्यों के अल्पज्ञ होने के कारण उनके ज्ञान में सत्य व असत्य दोनों प्रकार के कथनों का मिश्रण होता है। यही कारण है कि महाभारत युद्ध के बाद वेदों का अध्ययन-अध्यापन बन्द हो जाने के कारण संसार में वेदों का ज्ञान लुप्त हो गया और इस अवधि में देश विदेश में जो मत-मतान्तर उत्पन्न हुए, उनकी तुलना रात्रि के अन्धकार से की जा सकती है। रात्रि के अन्धकार में मनुष्य को अपने आसपास विद्यमान पदार्थों का निर्भ्रान्त ज्ञान नहीं होता जैसा दिन में सूर्य के प्रकाश में होता है। यही स्थिति हमारे मत-मतान्तरों की पुस्तकों की वेदों के ज्ञान के न होने के कारण हुई है। मत-मतान्तरों के आचार्यों के वेदज्ञान से अपरिचित होने के कारण उनकी पुस्तकों में अनेकानेक अविद्या व अज्ञान की बातें विद्यमान हैं। इस तथ्य को अनुभव करते हुए मत-मतान्तरों के आचार्य व उनके अनुयायी अपने अज्ञान व हितों के कारण सत्यज्ञान के ग्रन्थ वेद एवं वैदिक मान्यताओं का विरोध करते हैं। इसका उदाहरण है कि महाभारत के बाद वेद व वेदों पर आधारित जो ग्रन्थ हमारे तक्षशिला व नालन्दा आदि विश्वविद्यालयों के पुस्तकालयों सहित देश के अन्य पुस्तकालयों में थे, उन्हें विधर्मियों ने आग लगाकर नष्ट कर दिया। देश विदेश के कुछ स्वार्थ से प्रेरित विद्वानों ने वेदों के मिथ्यार्थ कर यह कहने का प्रयत्न किया कि वेद गड़रियों के गीत हैं और इन ग्रन्थों में बुद्धि व ज्ञान की कोई बात नहीं है।

ऋषि दयानन्द यदि संसार में न आते तो इन अविद्याग्रस्त मतवादियों का षडयन्त्र सफल हो सकता था। दैवीय संयोग से ऋषि दयानन्द का आगमन हुआ और उन्होंने सभी मतवादियों के मतों में विद्यमान अविद्या एवं असत्य मान्यताओं का प्रकाश किया जिससे सज्जन व सात्विक प्रवृत्ति के मनुष्यों ने उसे समझकर उनका अनुसरण किया। ऋषि दयानन्द ने ही ज्ञान के सत्यासत्य की परीक्षा की कसौटी को न्याय दर्शन के आधार पर बताया और सत्यार्थप्रकाश आदि अपने ग्रन्थों में सत्यासत्य की परीक्षा कर सत्य ज्ञान को प्रस्तुत किया है। यदि ऋषि दयानन्द आये होते तो लोगों को सत्यार्थप्रकाश जैसा क्रान्तिकारी सत्य का पोषक ग्रन्थ मिलता और ही लोगों को धर्म के नाम पर परोसे जाने वाले अज्ञान अन्धविश्वासों का ज्ञान होता। ईश्वर की महती कृपा थी उसने ऋषि दयानन्द जैसी प्रतिभाशाली आत्मा को अविद्यान्धकार से ग्रस्त भारत एवं सम्पूर्ण विश्व में सब सत्य विद्याओं के ग्रन्थ वेदों के प्रचार प्रसार के लिये भेजा था। उनके द्वारा सत्यज्ञान वेदों का प्रचार करने से उनके समकालीन व बाद के लोगों का कल्याण हुआ जिनमें आर्यसमाज के सभी अनुयायी सम्मिलित हैं। आज ऋषि दयानन्द द्वारा सत्यार्थप्रकाश व अपने अन्य ग्रन्थों में प्रस्तुत ज्ञान से भारत व विश्व के कोटि-कोटि लोग लाभान्वित हो रहे हैं। वेदों की सभी मान्यतायें ज्ञान व विज्ञान के सिद्धान्तों पर सत्य हैं। ऋषि दयानन्द के तर्कों के परिप्रेक्ष्य में मत-मतान्तरों के आचार्यों में सत्य को अपनाने के स्थान पर अपने मत की पूर्व मान्यताओं की व्याख्याओं में परिवर्तन कर उन्हें तर्क के आधार पर प्रतिष्ठित करना आरम्भ किया। यह महर्षि दयानन्द जी की विश्व को बहुत बड़ी देन है। महर्षि दयानन्द का समूची मानवजाति को ईश्वर व आत्मा विषयक आध्यात्मिक सत्य ज्ञान प्रदान करने का जो ऋण हैं, उससे हम कभी उऋण नहीं हो सकते।

महर्षि दयानन्द चार वेद एवं ऋषियों के वेदानुकूल साहित्य के अद्वितीय विद्वान थे। उन्होंने अपने जीवन को सुख भोग के लिये प्रस्तुत न कर सत्य ज्ञान के प्रचार के लिये समर्पित किया था। उनके अनुयायी सभी विद्वानों का कर्तव्य है कि वह ऋषि दयानन्द सहित उनके प्रमुख अनुयायियों स्वामी श्रद्धानन्द, पं0 लेखराम, पं0 गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, आचार्य चमूपति, पं0 गणपति शर्मा आदि की तरह स्वाध्याय व अध्ययन से अपने ज्ञान को बढ़ाकर उसका जन-जन में बिना किसी लोभ व यश आदि की कामना के प्रचार व प्रसार करें। आजकल आर्यसमाज का संगठन दुर्बलता से ग्रस्त है। विद्वान भी आजकल केवल आर्यसमाज के सत्संगों व उत्सवों में जाकर प्रवचन करना ही अपना मुख्य कर्तव्य समझते हैं। हमारी दृष्टि में इससे वेद प्रचार के लक्ष्य कभी प्राप्त नहीं हो सकते। आर्यसमाज मन्दिर के साप्ताहिक सत्संग या उत्सव में किसी आर्य विद्वान का उपदेश हमारी दृष्टि में प्रचार कोटि में नहीं आता। प्रचार तो वहां होता है जहां सत्य ज्ञान से वंचित व अपरिचित लोग विद्यमान हों। ऐसे लोगों में अपठित व पठित दोनों प्रकार के लोग होते हैं। आज ज्ञान व विज्ञान पढ़े लोग भी आध्यात्मिक ज्ञान से शून्य देखे जाते हैं। ऐसे लोग जो कभी विद्यालय या पाठशाला नहीं गये, उनसे तो धर्म व संस्कृति विषयक वेद व वेदानुकूल ज्ञान की अपेक्षा नहीं की जा सकती। अतः आर्य विद्वानों एवं ऋषिभक्तों का कर्तव्य है कि वह विचार कर उन स्थानों का पता लगायें जहां उपदेश करने से उनके ज्ञान का यथार्थ अर्थों में उपयोग हो सकता हो। निरक्षर अज्ञानियों की तुलना में किसी पठित व उच्च शिक्षित व्यक्ति से वैदिक सिद्धान्तों को मनवाना अधिक लाभकारी होता है। यदि हम मतवादी व स्वार्थों में फंसे लोगों के अतिरिक्त अन्य शिक्षित लोगों से वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों को स्वीकार कराने का प्रयत्न नहीं करते और उसमें सफलता प्राप्त नहीं करते तो ऐसा अनुमान होता है कि इसमें कहीं न कहीं हमारे विद्वानों की कुछ न्यूनता भी हो सकती है। हमें आर्यसमाज मन्दिरों में शिक्षितों एवं अन्य मतों के लोगों को बुलाकर समय-समय पर अनेकानेक विषयों पर गोष्ठियां व उपदेश-मालायें आयोजित करनी चाहियें और उसमें अन्य मतों के विद्वानों के प्रवचनों के बाद वैदिक मत को तर्क एवं युक्तिसंगत रूप से प्रस्तुत करना चाहिये। मीडिया आदि के माध्यम से भी हमें ऐसे आयोजनों का प्रचार करना चाहिये। ऐसा होने पर धीरे-धीरे समाज पर इसका प्रभाव पड़ना आरम्भ होगा परन्तु मुद्दा यह है कि क्या हम ऐसे आयोजन कर पायेंगे और क्या उसमें हमें आर्यसमाजेतर लोगों का सहयोग प्राप्त होगा?

विद्वान वह होता है जो वेद ज्ञान सहित अनेक आध्यात्मिक विद्याओं से युक्त होता है और साथ ही विनम्र स्वभाव का भी होता है। योग दर्शन में अपरिग्रह एवं लोभ से दूर रहने का विधान है। अगर हम इन विघ्नों का त्याग नहीं करेंगे तो हम  ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकते। अतः विद्वानों को भी लोभ, यश व परिग्रह की प्रवृत्ति से ऊपर उठकर ऋषि दयानन्द एवं आर्यसमाज के आद्य प्रचारकों के समान वेदों का जन-जन में प्रचार करना होगा। हम ईसाई पादरियों एवं उनके संगठनात्मक कार्यों से भी प्रेरणा ले सकते हैं। वह तो ग्रामीणों व अविद्याशून्य मनुष्यों को छल, प्रलोभन व बल आदि से धर्मान्तरित करते हैं परन्तु हमें इसकी आवश्यकता नहीं है। जहां ईसाई प्रचारक पहुंच कर वैदिक धर्मियों को धर्मान्तरण के लिये प्रेरित करते हैं, हमारे प्रचारकों को उन स्थानों पर जाकर वहां सत्य वैदिक मूल्यों व विचारों का प्रचार करना है और वहां के लोगों को वैदिक धर्म विरोधियों की कुटिल व कुत्सित भावनाओं से अवगत कराना है। उनको अन्धविश्वास छोड़ने सहित सभी व्यस्नों के त्याग की प्रेरणा भी करनी है। यदि हमारे अशिक्षित निर्धन बन्धु मद्य, मांस एवं अन्य अभक्ष्य पदार्थों के सेवन को छोड़कर सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का अध्ययन करेंगे तो उनकी अविद्या दूर होकर विद्या के बढ़ने से उनकी आर्थिक स्थिति में भी सुधार होगा और वह और उनके बच्चे भविष्य के योग्य विद्वान एवं सफल व्यवसायी बनकर आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी बन सकते हैं। इस ओर ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है।

आर्यसमाज विद्वानों, नेताओं व कार्यकर्ताओं को न केवल लोभरहित भावना से अपने सहयोगियों के साथ दूर दराज के स्थानों पर जाकर वैदिक विचारधारा का प्रचार करना है अपितु निर्धन एवं दुर्बल लोगों का मार्गदर्शन भी करना है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो वैदिक धर्म व संस्कृति सुरक्षित नहीं रह सकतीं। दूसरे मतों की जनसंख्या वृद्धि तथा वैदिक व सनातनी बन्धुओं की जनसंख्या के अनुपात में निरन्तर हो रही कमी पर भी हमें विचार करना और सावधान रहना है। सरकार से भी जनसंख्या नीति लागू करने की हमें मांग करनी है जैसी चीन आदि देशों में सभी मतों के लिये एक समान नीतियां हैं। वैदिक धर्म एवं संस्कृति को सुरक्षित व सबल बनाना सभी ऋषि भक्तों व आर्यसमाज सगठन से जुड़े व्यक्तियों का परम कर्तव्य है। यदि हम इसमें चूकेंगे तो इसके परिणाम हमारे अपने लिये, अमारी भावी पीढ़ियों सहित देश के लिये हितकर नहीं होंगे। हमें ऋषि दयानन्द के जीवन व उनके कार्यों पर समय समय पर गम्भीरता से विचार करते रहना चाहिये और अपने आचार व विचारों में परिवर्तन व संशोधन करते रहना चाहिये। हम जितना अधिक वेदों वा सद्धर्म का प्रचार करेंगे उतना ही देश व समाज सहित मानवता का लाभ होगा। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य