धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

ईश्वर के कुछ प्रमुख कार्य  और हमारा कर्तव्य

ओ३म्

हम इस संसार में रहते हैं। हमें यह सृष्टि बनी बनाई मिली है। इसमें सूर्य, चन्द्र, पृथिवी को तो हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं। हम यह भी जानते हैं कि रात्रि के समय में हमें जो तारे आदि दिखाई देते हैं वह भी सब हमारे सूर्य के समान ग्रह व नक्षत्र आदि हैं। वैज्ञानिक व ज्योतिष शास्त्री बताते हैं कि हमारे ही सूर्य, पृथिवी, चन्द्र एवं अन्य उपग्रहों के समान इस ब्रह्माण्ड में अनन्त ग्रह व उपग्रह हैं। सर्वत्र पृथिवी के समान ग्रहों में मनुष्यादि सृष्टि भी विद्यमान है। ऋषि दयानन्द ने एक बहुत तर्कसंगत बात यह लिखी है कि परमात्मा ने यह सभी ग्रह उपग्रह सप्रयोजन बनाये हैं। यह निरर्थक वा अनुपयोगी नहीं है। इस विशाल ब्रह्माण्ड की कल्पना कर हम इसके बनाने वाले परमात्मा के स्वरूप के विषय में कुछ कुछ जान सकते हैं। दो प्रमुख बातें तो उसके विषय में यह ज्ञात हो जाती हैं कि इस ब्रह्माण्ड का रचयिता एवं पालनकर्ता ईश्वर चेतनस्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सृष्टि को बनाने उसका पोषण सहित प्रलय करने के ज्ञान से पूर्णतः विज्ञ है। उसने इससे पूर्व भी ऐसी सृष्टियों को बनाया व चलाया है और इस सृष्टि के बाद भी ऐसा ही करेगा। सृष्टि में भी स्थिति एवं प्रलय की भांति हमारे जीवन में भी रात्रि व दिन आते जाते रहते हैं और हम निरन्तर अपने ज्ञान व बल में वृद्धि करते हुए जीवन को आगे बढ़ाते रहते हैं। परमात्मा भी ज्ञान व बल से युक्त होने के कारण अपने कर्तव्य कर्मों का सदा सर्वदा पालन करता रहता है। सृष्टि की रचना, उसका पालन और सृष्टि की अवधि पूर्ण होने पर इसकी प्रलय करना ईश्वर का अनेक कार्यों में से एक महत्वपूर्ण कार्य है। हम इस सृष्टि में जो सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे हैं उसका पूरा श्रेय ईश्वर को है। उसने हमारे लिए इस सृष्टि व इसके पदार्थों की रचना की है ओर हमें जन्म देने व हमारे शरीर की वृद्धि व उन्नति करने के कार्य के लिये हमसे कोई मूल्य नहीं लिया है। यह सब कुछ उसने हमें पूर्णतः निःशुल्क प्रदान किया है। इस लिये हम ईश्वर के आभारी हैं। यह भी जानना आवश्यक है कि ईश्वर इस सृष्टि का निमित्त कारण है। उसने इस सृष्टि व जगत को इसके उपादान कारण सत्व, रज और तम, इन तीन गुण वाली, सूक्ष्म जड़ प्रकृति से बनाया है। ईश्वर इस सृष्टि का निमित्त कारण है। ईश्वर, जीव व प्रकृति यह तीन सत्तायें वा पदार्थ इस लोक में अनादि व नित्य है और इसके साथ ही यह अविनाशी एवं सदा सर्वदा रहने वाले अर्थात् सनातन व शाश्वत सत्तायें हैं।

ईश्वर का दूसरा प्रमुख कार्य इस सृष्टि में जीवात्माओं को पूर्व कल्प व जीवों के पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार उन्हें भिन्न-2 योनियों में जन्म देकर सुख व दुःख प्रदान करना है। इस सृष्टि को परमात्मा बनाता ही जीवों को उनके कर्मानुसार सुख व दुःख का भोग कराने के लिये है। ईश्वर का यह कार्य सृष्टि में प्रत्यक्ष रूप में होता हुआ दिखाई देता है। संसार में मनुष्यों सहित पशु, पक्षियों, कीट, पतंगों एवं जीव-जन्तुओं की अनेकानेक योनियां हैं। समुद्र व नदियों के जल के भीतर भी जलचरों की अनेक योनियां विद्यमान हैं। इसका कारण खोजने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि इन योनियों के जीवों के पूर्वजन्मों के कर्मों एवं ईश्वरीय व्यवस्था का परिणाम ही जीवात्माओं के विभिन्न योनियों में जन्म प्राप्त करने का कारण हैं। मनुस्मृति से यह भी ज्ञात होता है कि पूर्वजन्म में मनुष्य के पाप-पुण्य बराबर अथवा पुण्य कर्म अधिक होने पर परजन्म में मनुष्य का जन्म मिलता है और पाप कर्मों के अधिक होने पर मनुष्येतर पशु-पक्षी आदि नीच योनियों में जीवात्माओं का जन्म होता है। ईश्वर सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वातिसूक्ष्म एवं सर्वज्ञ होने से जीवात्माओं की सभी योनियों में उनके सभी कर्मों का साक्षी होता है। जीवात्माओं के कर्मों के प्रत्यक्ष ज्ञान के अनुसार ईश्वर सभी जीवों के लिए जन्म व मृत्यु की व्यवस्था करता है। हम तो विचार करने पर यह भी अनुमान करते हैं कि इस ब्रह्माण्ड में अनेक व अनन्त लोक लोकान्तरों में पृथिवी के सदृश्य अनेक ग्रह व लोक हैं जहां पर मनुष्यादि सृष्टि इसी पृथिवी गृह के समान हो सकती है। उन ग्रहों पर भी परमात्मा इस लोक के जीवों को जन्म दे सकता व देता है। इसी प्रकार से इस सृष्टि के आरम्भ से हमारा व सभी जीवों का जन्म होता आ रहा है। सभी जीव ईश्वर की व्यवस्था के प्रति आश्वस्त हैं। कोई ईश्वर की व्यवस्था में कमी नहीं निकालता। कुछ शिक्षित अज्ञानी मनुष्य ऐसे भी हैं जो ईश्वर के अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं करते। उन पर अध्यात्म ज्ञान से शून्य विदेशियों का प्रभाव तथा अपनी अल्पविद्या का अहंकार होना ही प्रतीत होता है। वह जिस परिवेश में जन्में होते हैं, जैसी शिक्षा व संस्कार उन्हें मिलते हैं तथा जिस प्रकार के नास्तिकों के साहित्य का वह अध्ययन करते हैं, उसी का परिणाम उनके जीवन में नास्तिकता से युक्त विचार होते हैं। अतः ईश्वर है, सृष्टि उसकी रचना है, सृष्टि में आदर्श व्यवस्था के दृष्टिगोचर होने से उसका साक्षात व अनुमान पर आधारित ज्ञान होता है। हमें ईश्वर को मानने में ही लाभ है। न मानने में अनेक हानियां होती हैं। अतः सभी को ईश्वर, आत्मा व प्रकृति की सत्ता को स्वीकार करते हुए ईश्वर प्रदत्त ज्ञान वेद को भी मानना चाहिये। इस प्रकार हम देखते हैं कि संसार में जीवात्माओं को जन्म व मृत्यु की व्यवस्था स्वतः न होकर ईश्वर के द्वारा बहुत ही आदर्श रूप में व्यवहृत हो रही है। ईश्वर अपना यह कार्य आदर्श रूप में कर रहा है।

ईश्वर का एक मुख्य कार्य सृष्टि की आदि में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न मनुष्यों को वेदों का ज्ञान देना भी है। पशु-पक्षियों को उसने स्वाभाविक ज्ञान दिया हुआ है जिससे वह अपना जीवन व्यवस्थित रूप में व्यतीत करते हैं। मनुष्य बिना ज्ञान के अपना जीवन व्यतीत नहीं कर सकता। सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न मनुष्यों को भी अपने दैनिक व अन्य कर्मों को करने के लिये ज्ञान की आवश्यकता थी। उस समय उन्हें ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य सत्ता से ज्ञान नहीं मिल सकता था। ईश्वर सर्वज्ञ एवं सर्वान्तर्यामी होने से मनुष्य के हृदयस्थ आत्मा में प्रेरणा करके ज्ञान प्राप्त करता व कराता है। ऐसा ही उसने सृष्टि के आरम्भ में अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा इन चार ऋषियों को ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद का ज्ञान देकर किया था। इन ऋषियों से ही अपना अपना वेदों का प्राप्त ज्ञान ब्रह्मा जी को देने व उन सबसे अन्य सभी मनुष्यों वा स्त्री-पुरुषों को ज्ञान देने व वेद प्रचार की परम्परा आरम्भ हुई थी जो वर्तमान में भी चल रही है। वेद का ज्ञान सत्य एवं विज्ञान से भी पुष्ट है। वेदों में ईश्वर, जीवात्मा तथा सृष्टि विषयक ज्ञान सहित संसार व विश्व का सत्य स्वरूप उपलब्ध है। मनुष्यों के सभी प्रमुख कर्तव्यों का भी वेदों में व्यवहारिक ज्ञान उपलब्ध होता है। वेदों के सबसे प्राचीन होने से संसार के अन्य ग्रन्थों में ईश्वर आत्मा विषयक ज्ञान वेदों से ही गया है। मत-मतान्तरों के ग्रन्थों में ईश्वर, जीवात्मा व सृष्टि विषयक जो अविद्यायुक्त कथन हैं वह उन ग्रन्थों के आचार्यों की अल्पज्ञता आदि के कारण उनके अपने हैं। वेदाध्ययन कर ज्ञान बढ़ाकर ही मनुष्य इस संसार को सत्य स्वरूप में जान सकता है। ऋषि दयानन्द ने यही कार्य वेदों का प्रचार किया था जिससे सब मनुष्य वेदज्ञान से लाभ उठा सकें। उनके समय में मत-मतान्तरों सहित देश समाज में सर्वत्र अविद्यान्धकार छाया हुआ था। स्वामी दयानन्द जी ने वेदों का प्रचार कर उस अज्ञान को दूर किया था और वेद ज्ञान से युक्त एक अपूर्व अनमोल ग्रन्थ ‘‘सत्यार्थप्रकाश” संसार को दिया था। यह ग्रन्थ मनुष्य को अविद्या व अज्ञान को छुड़ाता है। मनुष्य को सत्य ज्ञान से युक्त करता है और उसे मूर्ख से विद्वान व अज्ञानी से ज्ञानी मनुष्य बनाता है। अतः सभी को ऋषि दयानन्द का ग्रन्थ ‘‘सत्यार्थप्रकाश” अवश्य पढ़ना चाहिये। मनुष्य संसार की कोई भी पुस्तक पढ़ सकता है इसकी सबको छूट होनी चाहिये। सत्यार्थप्रकाश ऐसा ग्रन्थ है कि इसे पढ़ लेने के बाद उसे अन्य ग्रन्थों को पढ़कर जो अविद्या प्राप्त होती है, उसका सुधार निराकरण हो जाता है। मनुष्य के सभी भ्रम दूर हो जाते हैं और वह सत्य ज्ञान से युक्त होकर सुख आनन्द की स्थिति को प्राप्त होता है। अतः सत्यार्थप्रकाश सहित ऋषि दयानन्द के सभी वैदिक ग्रन्थों एवं वेदों का भाष्य प्रत्येक मनुष्य को पढ़ना चाहिये। इसी से आत्मिक उन्नति होकर मनुष्य का यह जन्म व परजन्म दोनों संवरता व सुधरता है। वेदों का ज्ञान सभी मनुष्यों के आवश्यक एवं उपादेय है। बिना वेदों के ज्ञान व उसके आचरण के मनुष्य जन्म व मरण के बन्धनों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त नहीं हो सकता, ऐसा अनुभव वेदाध्ययन से होता है।

ईश्वर में अनन्त गुण, कर्म तथा स्वभाव हैं और वह हर क्षण अनन्त कर्म करता हैं। संसार में प्रतिदिन व प्रत्येक क्षण जन्म लेने वाले मनुष्य व अन्य योनियों के शरीर उसी की व्यवस्था व रचना-धर्म का परिणाम होते हैं। पूरे ब्रह्माण्ड को ईश्वर ने ही धारण किया हुआ व थामा हुआ है। वृक्ष-वनस्पतियों तथा अन्न को भी उत्पन्न करना भी उसी का कार्य है। उसका सान्निध्य परम आनन्ददायक होता है। हमें उसका सान्निध्य प्राप्त करने की विधि आनी चाहिये। इसी लिये ऋषि दयानन्द ने ‘‘सन्ध्या” का पुस्तक लिखा है। इसे पढ़कर और सन्ध्या का विधिपूर्वक अनुष्ठान करके हम ईश्वर का सान्निध्य एवं साक्षात्कार कर सकते हैं। यही मनुष्य जीवन वा जीवात्मा का परम लक्ष्य भी है। इस लक्ष्य तक पहुंचाने में महर्षि दयानन्द की भूमिका सभी महापुरुषों से अधिक महत्वपूर्ण हैं। उन्हें हमारे कोटिशः नमन है। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य