कहानी

स्ट्रीट चिल्ड्रन

स्ट्रीट चिल्ड्रन

‘देखा, उसके हाथ में कितना सुन्दर गिलास है’ बातुल ने गंजू से उस गिलास से कोई पेय पदार्थ पीते हुए अमीर से दिखने वाले लड़के की तरफ टुकुर-टुकुर देखते हुए कहा। बातुल और गंजू सड़क के बच्चे थे जिन्हें अंग्रेजी में स्ट्रीट चिल्ड्रन कहा जाता है और अंग्रेजी का यह शब्द ‘चिल्ड्रन’ संभवतः ऐसा भाग्य लेकर पैदा हुए बच्चों के स्तर को कुछ ऊंचा उठाता हुआ प्रतीत होता है।  ‘हां यार, बहुत सुन्दर है, पर क्या पी रहा होगा?’ गंजू ने कहा।  ‘पता नहीं, कुछ दिख तो नहीं रहा, पीने वाली डंडी से पी रहा है’ बातुल ने कहा।  ‘चल बैठ जाते हैं, बड़ा गिलास है, कभी तो खाली होगा और अगर उसने पीने के बाद गिलास छोड़ दिया तो हमारे बहुत काम आयेगा’ गंजू ने कहा।

‘वह कैसे?’ बातुल ने कहा।  ‘तू भी न लल्लू का लल्लू ही रह गया, कभी-कभी जब हम प्याऊ पर पानी पीने जाते हैं तो अंजलि से पीना पड़ता है और ऐसा करने में जब ज्यादा पानी अंदर जाने के बजाय बाहर गिरता है तो पानी पिलाने वाला डांट कर भगा देता है बिना यह पूछे और जाने कि हमारी प्यास बुझी है या नहीं। पर जब यह बड़ा गिलास होगा तो पूरा भरवा लेंगे और बैठ कर आराम से पियेंगे।  मेरी मां कहती हैं ’बेटा, बैठ कर खाना पीना चाहिए, इससे शरीर ठीक रहता है।’ गंजू ने कहा।  ‘अच्छा …!!!.’ बातुल ने कहा।

‘और नहीं तो क्या, मेरी मां बड़ी समझदार है’ गंजू ने कहा।  ‘और हां, कुछ दिन पहले गर्मियों में जब लोग मीठा गुलाबी पानी पिला रहे थे तो मैंने भी पिया था।  उस वक्त मेरा मन कर रहा था कि मैं घर ले जाकर मां-बाप को भी पिलाऊं।  मैंने उनसे प्लास्टिक का गिलास मांगा कि घर ले जाना है तो उन्होंने मुझे मना कर दिया और मेरे हाथ से गिलास खींच लिया।  अभी तो मैंने पूरा भी नहीं पिया था।  मीठा पानी गिर गया और पिलाने वालों को ऐसा लगा कि मुझे अच्छा नहीं लगा और उन्होंने मुझे वहां से भगा दिया।  अगर ऐसा गिलास हाथ में होता तो मैं भरवा कर घर ले जाता और सबको पिलाता।  हो सकता है सबको अच्छा लगता तो मैं दुबारा भी आकर ले जाता’ बातुल ने कहा।

‘अब की न तूने कोई अकल वाली बात’ गंजू ने कहा।  ये सब बातें करते हुए दोनों अपनी निगाहें उस अमीर लड़के पर टिकाए हुए थे।  ‘अबे गंजू, देख, वो लड़का तो गिलास साथ लेकर ही चल पड़ा, लगता है उसे भी गिलास सुन्दर लगा है और वो उसे अपने साथ ले जायेगा’ बातुल ने कहा।  ‘चुप कर यार, तू नहीं जानता इन अमीरों को, ये तो बहुत सी सुन्दर चीजें अधूरी इस्तेमाल करने के बाद फेंक देते हैं, तू आ, मेरे साथ चल, इसके पीछे-पीछे चलते हैं और देखते हैं ये क्या करता है’ गंजू ने बातुल की बांह पकड़ते हुए बोला।

गंजू और बातुल दबे पांव उस लड़के के पीछे-पीछे चल पड़े।  ‘थोड़ा पीछे रह, उस लड़के ने देख लिया तो उसे यही लगेगा हम उसका पीछा कर रहे हैं, वैसे तो हम पीछा ही कर रहे हैं, पर उसे पता चल गया तो क्या फायदा, पीछा थोड़ी दूर रह कर ही करना चाहिए, देखा नहीं था उस पिक्चर में’ गंजू ने बातुल को सावधान किया।  ‘ऐसे कह रहा है जैसे तूने जेम्स बांड की कोई फिल्म देखी हो। देख गंजू, वो पार्किंग की तरफ जा रहा है, लगता है उसके पास कार है जिसे वो वहां खड़ा कर के आया है’ बातुल ने कहा।  इतने में उस अमीर लड़के ने किसी वजह से पीछे मुड़कर देखा तो गंजू और बातुल आकाश की ओर ऐसे देखने लगे जैसे कि कोई पतंग उड़ रही हो।

‘बातुल, देख, वो लड़का हमारी तरफ आ रहा है, तूने मरवा दिया, मैंने कहा था न चुपचाप बिना शोर मचाए उसका थोड़ा दूर रहते हुए पीछा करो, पर तू है कि तुझे ज्यादा जल्दी थी गिलास लेने की, जरा भी सब्र नहीं था, अब जल्दी कर वापिस पीछे भाग, नहीं तो अमीर लड़के की जुबां से कुछ ऐसा सुनने को न मिल जाए जो हमें अच्छा न लगे’ गंजू ने कहा।  ‘और हां, हो सकता है वह हमें पकड़ कर हमारी धुनाई भी कर दे, क्या भरोसा’ बातुल गंजू के साथ कदम वापिस खींचते हुए पीछे की ओर कदम तेज करते हुए बोला, ठीक ऐसे जैसे कोई सेना सामने बड़ी ताकत को देखते हुए पीछे की ओर मुड़ने लगती है।  तेजी से चलते-चलते दोनों कनखियों से उस अमीर लड़के की ओर देखते जा रहे थे।  पर अमीर लड़का भी तेजी से उनकी ओर आता जा रहा था और दोनों के बीच की दूरी कम रह गई थी।  अमीर लड़के की चाल मस्त थी बिल्कुल मदमस्त हाथी की भांति जो इधर उधर के छोटे-मोटे जानवरों को अनदेखा करता हुआ चलता है।  डर के मारे गंजू और बातुल सहम गए थे, जड़वत हो गए थे, दोनों ने एक-दूसरे के हाथ को कस कर पकड़ लिया था और एक समय पर आंखें बंद कर ली थीं।

‘ढपाक …..’ एक जोरदार आवाज हुई और डरे-सहमे गंजू-बातुल की बंद आंखें उस आवाज से खुल गईं।  सामने देखा तो कुछ नजर नहीं आया तो पीछे की ओर देखा।  पीछे देखा तो पाया कि वह अमीर लड़का गंजू-बातुल के थोड़ा पीछे लगे हुए कूड़ेदान में उस गिलास को फेंक चुका था।  कूड़ेदान का ढक्कन बंद होने से वह जोरदार आवाज हुई थी।  गंजू-बातुल ने एक-दूसरे की ओर देखा और फिर अमीर लड़के की ओर देखा जो गिलास फेंकने के बाद पार्किंग में गया और अपनी कार में बैठ कर चला गया।  ‘धत् तेरे की, आज तो जान ही निकल गई थी, यह तो गिलास फेंकने आया था, हम ऐसे ही डर गए’ बातुल ने लंबी सांस भरते हुए गंजू से कहा।  ‘सही कह रहा है।  जान ही निकल गई थी।  पर हमारी अकल भी मारी गई थी।’ गंजू ने कहा।  ‘वो कैसे’ बातुल ने हैरानी जताई।

‘कैसे क्या, तूने यह तो सोचा होता वो अमीर लड़का है, वो गिलास घर क्यों लेकर जाता, उसे तो गिलास के अन्दर की चीज से मतलब था और इधर-उधर फेंकने में भी उसकी शान पर बट्टा लगता । वह अमीरी की भाषा बोलता होगा, अमीर खाना खाता होगा, वह हम जैसों के मुंह क्यों लगेगा, हमसे बोलने में उसकी जुबां खराब नहीं हो जाती और मान लो अगर वह हमारी धुनाई करता भी तो क्या उसके हाथ मैले नहीं हो जाते, कपड़े बिगड़ते सो अलग’ गंजू ने ज्ञान बांटा।  ‘हां यार, तू सही कह रहा है’ बातुल ने कहना जारी रखा ‘पर जब उसने गिलास का सारा पेय पी लिया था तो हम उससे खाली गिलास मांग भी तो सकते थे, हमने ये भी नहीं किया।’

‘बातुल तू तो निरा मूर्ख है, मांगना कोई अच्छी बात नहीं होती’ गंजू ने कहा।  ‘तो गिरा हुआ उठाना अच्छी बात है?’ बातुल ने पलट कर कहा।  ‘बेकार की बातें न कर, जब बरसात में पेड़ से जामुन गिरते हैं तो हम उन्हें उठाकर नहीं खाते क्या, बता जरा?’ गंजू ने कहा।  ‘यार बड़ी बड़ी बातें कर रहा है, अच्छा चल, कूड़ेदान में से गिलास उठा लें इससे पहले कि कोई कुछ और फेंक दे और वह गिलास पिचक जाये’ बातुल ने कहा।  ‘कभी-कभी तेरी अकल चल जाती है’ कहते हुए गंजू बातुल के साथ कूड़ेदान की ओर गया।  कूड़ेदान का ढक्कन बंद था।  ‘भारी है ढक्कन’ बातुल बोला।  ‘फिर वही बात, देखा कर जरा लोग कूड़ेदान को कैसे खोलते हैं, चल देख वो नीचे, वो पैडल लगा है न उसे पैरों से जोर से दबा’ गंजू ने कहा।  बातुल ने पैर से पैडल को दबाया तो ढपाक की आवाज के साथ कूड़ेदान का ढक्कन खुल गया।

‘देखा, इसे कहते हैं, अकल, अपने चारों ओर नजर रखा कर, नहीं तो जिंदगी में कुछ नहीं कर पायेगा, चल अब जल्दी से गिलास उठा’ गंजू ने कहा।  बातुल ने तपाक से वह गिलास उठा लिया ‘अरे, इस गिलास में भी ढक्कन लगा है पर इसके बीच में छेद हो गया है।  इसे खोलने के लिए भी कोई पैडल लगा है क्या!’ अब तक खीझ चुके गंजू ने बातुल से गिलास खींचा तो उसमें से मीठा पेय पदार्थ लुढ़क पड़ा।  ‘धत्, सारे हाथ खराब हो गये, चिपचिपे हो गये, अमीर लड़का है न, पूरा क्यों पियें, थोड़ा सा बचाना इनकी शान होती है, यह मैं भूल ही गया था, ये तो हम लोग ही हैं कि पूरा खत्म हो जाने के बाद भी हम गिलास को ऊपर किये मुंह से लगाये रहते हैं कि आखिरी बूंद भी हम पी लें।  और अमीर लोग तो प्लेट में खाना भी बचा देते हैं।  उन्हें क्या फर्क पड़ता है? फर्क तो हमें पड़ता है’ गंजू ने कहा।

‘गंजू, वहां देख, सरकारी नल लगा है, वहां चल कर हाथ और गिलास दोनों धो लेते हैं’ बातुल ने कहा तो दोनों सरकारी नल की ओर चल दिये।  वहां पहुंच कर बातुल ने पूरे आत्मविश्वास के साथ टोटी खोली तो उसमें से पानी की एक बूंद भी नहीं निकली ‘यार, ये तो बिल्कुल सूखी है।’  ‘हां भई, सरकारी है न, जब अफसर बचायेंगे तो ही इनमें पानी आयेगा न’ गंजू ने कहा।  ‘चल आ, पार्किंग में चलते हैं’ बातुल ने कहा।  ‘वहां जाकर क्या करेंगे’ गंजू ने पूछा।  ‘मैंने कल देखा था कुछ लोग पानी की बोतल में से पानी पीते हैं और इस अमीर जैसे लोग फिर बोतल को फेंक देते हैं, शायद हमें कोई बोतल मिल जाये जिसमें पानी बचा हो, वो हमारे काम आ जायेगी’ बातुल ने कहा तो गंजू उस पर फिदा हो गया।  ‘यार, तू अपनी अकल हमेशा इस्तेमाल किया कर।’

दोनों पार्किंग की ओर गये तो देखा वहां वास्तव में पानी की अधभरी बोतलें पड़ी थीं।  दोनों ने उन बोतलों में बचे हुए पानी से अपने हाथ धोए और फिर गिलास धोया।  ‘अब सही हो गया है न गंजू’ बातुल ने कहा।  ‘नहीं’ गंजू ने कहा।  ‘क्यों, अब क्या है’ बातुल ने कहा।  ‘ये पानी झूठा था, अभी तो जैसे-तैसे हमने चिपचिपाहट को दूर कर गिलास को धो लिया है।  अब घर चलते हैं, मां से कहेंगे इसे ठीक से धोकर पवित्र कर दे ताकि फिर यह इस्तेमाल करने लायक बन सके’ गंजू ने कहा।  ‘बात तो ठीक है, अमीरों के झूठे खाने या पीने से हमारी ज़िन्दगी तो नहीं संवर जायेगी’ बातुल ने कहा।  ‘सही है बेटे, बस यूं ही अपनी अक्ल लगाया कर’ और दोनों जोर-जोर से हंस पड़े।

सुदर्शन खन्ना

वर्ष 1956 के जून माह में इन्दौर; मध्य प्रदेश में मेरा जन्म हुआ । पाकिस्तान से विस्थापित मेरे स्वर्गवासी पिता श्री कृष्ण कुमार जी खन्ना सरकारी सेवा में कार्यरत थे । मेरी माँ श्रीमती राज रानी खन्ना आज लगभग 82 वर्ष की हैं । मेरे जन्म के बाद पिताजी ने सेवा निवृत्ति लेकर अपने अनुभव पर आधरित निर्णय लेकर ‘मुद्र कला मन्दिर’ संस्थान की स्थापना की जहाँ विद्यार्थियों को हिन्दी-अंग्रेज़ी में टंकण व शाॅर्टहॅण्ड की कला सिखाई जाने लगी । 1962 में दिल्ली स्थानांतरित होने पर मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय से वाणिज्य स्नातक की उपाधि प्राप्त की तथा पिताजी के साथ कार्य में जुड़ गया । कार्य की प्रकृति के कारण अनगिनत विद्वतजनों के सान्निध्य में बहुत कुछ सीखने को मिला । पिताजी ने कार्य में पारंगत होने के लिए कड़ाई से सिखाया जिसके लिए मैं आज भी नत-मस्तक हूँ । विद्वानों की पिताजी के साथ चर्चा होने से वैसी ही विचारधारा बनी । नवभारत टाइम्स में अनेक प्रबुद्धजनों के ब्लाॅग्स पढ़ता हूँ जिनसे प्रेरित होकर मैंने भी ‘सुदर्शन नवयुग’ नामक ब्लाॅग आरंभ कर कुछ लिखने का विचार बनाया है । आशा करता हूँ मेरे सीमित शैक्षिक ज्ञान से अभिप्रेरित रचनाएँ 'जय विजय 'के सम्माननीय लेखकों व पाठकों को पसन्द आयेंगी । Mobile No.9811332632 (Delhi) Email: [email protected]