हवाओं में कितना जहर घुला है यारों।
शहरों से तो ये जंगल भला है यारों।
दो कदम तुम , दो कदम हम भी चले,
बस इतना ही तो फासला है यारों।
वक्ते जुदाई एक बार न देखा मुड के,
ये कैसा चाहत का सिलसिला है यारों।
हाथ में पत्थर लिए इंसाफ के देवता,
मगर यहाँ कौन दूध का धुला है यारों।
किसे सच माने अब किसे झूठ समझे,
हर किरदार मुखौटों में ढला है यारों।
न वो मौहब्बतें रही न वो खुलुश रहा,
अब के मौसम बदला बदला है यारों।
फिर आ गए झूठे ख्वाबों के सौदागर,
डकैतों ने साधु का भेष बदला है यारों।
— ओमप्रकाश बिन्जवे “राजसागर”