बिरह गीत गाऊं मै
धरा को सुला दूं,
गगन को जगा दूं
प्रिय , चांदनी में
विरह गीत गाऊं मैं।
बहुत है उदासी हृदय में हमारे,
बहुत खल रही है मुझे जिन्दगानी,
बहुत हैं सरस भाव उर में हमारे,
बहुत खल रही है मुझे यह जवानी।
अभी चांदनी मुझ से,
की खेल रचना रही है,
तुम्हें याद करके,
जरा मैं भी गुनगुनाऊं।
बहुत सोचता हूं तुम्हें मैं सुहागिनि,
कि जाती बची है तुम्हारी निशानी,
कठिन भाव जागे, गया कल शयन को,
उमड़ती रही आंसुओं की रवानी।
बहुत है उदासी,
मिलन चाहता हूं,
मगर आज तुमको,
कहां प्राण पाऊं।
दिया दर्द तुमने बुझाये न बुझता,
कहां कब रूकेगा, नयनों का ये पानी,
तुम्हारे लिए दीप के हर किरण में,
जलेगी हमारी शलभ सी जवानी।
नयन को सुला दो,
हृदय को जगा दो,
सपन बन तुम्हें अब,
जरा सा हंसाऊं।।
— कालिका प्रसाद सेमवाल