बालकहानी : प्रसन्नता के आँसू
एक बार ज्ञानदायिनी माँ सरस्वती हंस पर सवार होकर आकाश मार्ग से होते हुए श्रीहरि विष्णुजी से मिलने विष्णुलोक जा रही थीं। श्वेत वस्त्रों से सजी-सँवरी माँ सरस्वती की गौरवर्ण काया रजत आभूषणों से सुशोभित थी। चूँकि माँ सरस्वती को विष्णुलोक पहुँचने में विलम्ब थी, अतः हंस को वह सृष्टि-निर्माण के सम्बंध में बता रही थीं। हंसराज माँ सरस्वती की बातों को सुन तो रहा था, पर ध्यान कहीं और था। उसे किसी बात फर बड़ी ग्लानि हो रही थी। माता सरस्वती अपने भक्त पक्षीराज हंस के मन को भाँप गयीं। उसे दुखी देख माता पूछ बैठी – ‘वत्स ! कहो क्या बात है, तुम्हारे चिंता का क्या कारण है पुत्र ? तुम बहुत दुखी लग रहे हो। ‘
‘ नहीं माते ! मैं भला आपके होते कैसे चिंतित हो सकता हूँ…’, हंसराज सत्यता छिपाते हुए बोला – ‘मैं बिल्कुल ठीक हूँ माता। नहीं… नहीं… मुझे न कोई चिंता है और न कोई दुःख। ‘
‘ पुत्र हंसराज, तुम अपनी माता के होते अपनी ग्लानिपूर्ण बातों को क्यों छिपा रहे हो ? मैं तुम्हारी माँ हूँ। माँ से कोई बात छिप सकती है ? आखिर क्या बात है, जिससे तुम्हारे चेहरे पर दुःख और चिंता की लकीरें उभर रही हैं ? ‘
‘ नहीं… नहीं… माते ! ‘ हंसराज पुनः असत्यता को पीछे धकेलने का प्रयास करने लगा।
‘ देखो पुत्र, सत्य कभी छिपाया नहीं जा सकता। यदि तुम स्वयं सत्यता को स्पष्ट करना नहीं चाहोगे, तो भी सच्चाई पता चल ही जाएगी। बेहतर यही होगा कि तुम स्वयं अपने मुख से कहो ‘, माँ सरस्वती समझाने लगी। मन खींजते हुए आँखों के परदे गिराकर हंसराज गम्भीर मुद्रा में अपनी बात रखने लगा – ‘हे माता ! मैं और आप तो क्या, सारा संसार जानता है कि मेरे शरीर का रंग मटमैला है और इसीलिये समस्त प्राणियों को मैं कुरुप दिखाई देता होता हूँ। अन्य पक्षीगण के मुख से मैंने स्वयं सुना है कि सुंदरता का पर्याय देवी सरस्वती के सवारी को इतना कुरुप नहीं होनी चाहिए। वे मेरे मैले-कुचैले शरीर का परिहास करते हैं। ‘ माँ सरस्वती हंस की बातों को ध्यानपूर्वक सुन रही थीं। बोली – ‘हंसराज ! तुम्हें कहीं गलतफहमी तो नहीं हो गया है ? यदि ये सब बातें असत्य प्रमाणित हुई तो संसार में दोषी माने जाओगे। ‘
‘ नहीं माता , यह पूर्णतः सत्य है। माँ, मुझमें इतना साहस ही नहीं है कि मैं आपसे झूठ बोलूँ ‘ हंसराज अपनी सत्यता पर जोर देने लगा – ‘माँ ! एक बार मैंने श्रीहरि विष्णुजी के सवारी गरूड़ जी से यह कहते सुना है कि आपको मेरा परित्याग कर देना चाहिए। मैं आपके सवारी के योग्य नहीं हूँ। उसने आगे कहा कि मिट्टी के रंग वाले इस आभाहीन पक्षी को माता सरस्वती ने अपने योग्य क्यों चुना ? माता वीणपाणि का यह सवारी-चयन पूरे देवी-देवताओं के विचार व सहमति से परे है। परंतु आज तक मैंने यह बात किसी को नहीं बतायी। मैं सदैव शांत रहा , पर मुझे आत्मग्लानि होती रही। ‘ क्षण भर के लिए अपनी हिलती जिव्हा को नियंत्रित करते हुए हंसराज को देख वीणावादिनी बोली – ‘हंसराज, तुमने यह बात किसी को न बता कर बिल्कुल ठीक किया। तुमने अपना धैर्य नहीं खोया पुत्र। अपने क्रोध पर काबू रखा। मैं तुम्हारे इन नैतिक गुणों से अत्यंत प्रसन्न हूँ वत्स। ‘ परन्तु आज तुम मुझे अपनी पूरी बात बता डालो। निःसंकोच कहो पुत्र। ‘
आत्मग्लानि से भरे मन लिए हंसराज अपनी ग्रीवा हिलाते आगे बोला – ‘माता ! एक बार बसंत पंचमी को सुरडोंगर वन में पक्षियों का मिलन समारोह आयोजित था, जिसमें मैं भी सम्मिलित था। विशाल कुसुम वृक्ष के कोमल शाखा पर विराजित भोलेनाथ के पुत्र कार्तिकेय के सवारी मयूर ने एक बात कही थी कि….कि….’
‘ कहो पुत्र, क्या बात कही थी मयूर ने ..?.’ माता वेदज्ञायिनी हंसराज में साहस भरते हुए बोली।
‘ यही कि मेरे शरीर का रंग कभी परिवर्तित नहीं हो सकता ‘ हंसराज अपनी ठिठकती जुबान सरकाने लगा -‘ मैं कभी सुंदर नहीं हो सकता। सबकी नजरों में मेरी कुरुपता सदैव बनी रहेगी। उसने यह तक कह डाला कि मेरे मटमैले रंग के कारण आप मुझे तज देंगी। माता, क्या मेरे शरीर का रंग परिवर्तित नहीं हो सकता ? क्या मैं कभी सुंदर नहीं हो सकता ? हे माता ! मैं सब कुछ सहन कर सकता हूँ, परन्तु मेरा आप से अलग होना असहनीय होगा। हे ज्ञान संयोजिनी आप मेरा परित्याग कभी मत कीजिएगा। मेरा जीवन व्यर्थ हो जाएगा। मैं अपनी कुरुपता का दुःख सहन कर सकता हूँ, पर आपसे अलग होना बिल्कुल नहीं। ‘ हंसराज अपनी व्यथा माता सरस्वती के समक्ष रखते हुए फुट-फुट कर रो पड़ा।
हंसराज की हृदयस्पर्शी बातों से माता सरस्वती के हृदयसागर में प्रेम व करूणा की तरंगें हिल्लोरें मारने लगीं। वत्सल जागृत होने लगा। ममतामयी ज्ञान-तरंगिणी माँ सरस्वती बोली – ‘ वत्स, तुम बिल्कुल चिंता मत करो कि मै तुम्हारा परित्याग कर दूँगी। अब रही तुम्हारे मटमैली देह की बात , तो यह कोई चिंता का विषय नहीं है। यह कोई गम्भीर समस्या भी नहीं है पुत्र।इसका समाधान श्रीहरि विष्णुजी की भार्या माता श्रीलक्ष्मी जी कर सकती हैं। पुत्र, तुम भी अन्य पक्षियों की तरह सुंदर हो सकते हो। तुम्हारी छवि अवश्य निराली होगी। और ऐसा समय आएगा कि संसार के सुंदर पक्षियों में तुम्हारी गिनती होगी। ‘ माँ सरस्वती आगे बोली – ‘मैं अभी माता श्रीलक्ष्मी जी का स्मरण करती हूँ। वह निश्चय ही तुम्हारी इस समस्या का समाधान सुत्र बताएँगी। ‘ तत्पश्यात माँ सरस्वती ध्यान मग्न होकर माता श्रीलक्ष्मी जी का स्मरण करने लगीं।
कुछ क्षण पश्चात श्रीलक्ष्मी प्रकट हुई।बोली – ‘हे माते वागीश्वरी ! आप मेर प्रणाम स्वीकार करें। मैं आपके समक्ष उपस्थित हूँ। कहिए देवी, मेरे लिए क्या सेवा है ? परस्पर औपचारिकता के पश्चात माता सरस्वती ने श्रीलक्ष्मी जी को पूरी बात बता दी। फिर माता श्रीलक्ष्मी जी मुस्कुराती हुई ‘ तथास्तु ‘ कहकर समास्या का समाधान बताने लगीं, जिसका ज्ञान केवल माता सरस्वती को हुआ। और फिर श्रीलक्ष्मी जी अदृश्य हो गयीं। तदुपरांत माँ सरस्वती हंसराज को क्षीरसागर के पूर्व की ओर चलने को कहा। हंसराज उड़ान भरने लगा। क्षीरसागर के पूर्वीतट पर पहुँच कर माँ सरस्वती श्रीलक्ष्मी जी की कही हुई बात बताने लगीं – ‘हंसराज ! सर्वप्रथम तुम सागर के जल को प्रणाम करना। फिर पूर्व दिशा की ओर मुख कर के हाथ जोड़कर श्रीहरि विष्णु जी का स्मरण करते हुए ‘ ओम् नमो भगवते वासुदेवाय ‘ का सात बार मंत्रोच्चार का करना। अंत में ‘ ओम ‘ श्रीकमलाय नमः ‘ जाप करते हुए तीन बार डूबकी लगाना। ‘
तत्पश्चात हंसराज माता सरस्वती के कहे अनुसार श्रद्धापूर्वक पूरे क्रियाकलाप पूर्ण किया। जैसे ही उसने जल में तीसरी बार डूबकी लगाई, उसके पूरे शरीर का रंग क्षीर अर्थात दूध की तरह सफेद हो गया। अपनी सुंदर चमकीली काया पाकर वह बहुत खुश हुआ। फिर माता सरस्वती को धन्यवाद ज्ञापित करते हुए चरण स्पर्श किया। अपनी निराली व सुंदर देह को निहारते हुए हंसराज फुला नहीं समा रहा था।अब भी उसकी आँखों में आँसू थे, परन्तु इस बार आँसू आत्मग्लानि की नहीं, अपितु प्रसन्नता के आँसू थे।
— टीकेश्वर सिन्हा “गब्दीवाला”