सच को झूठ से और कितना बदलोगे
तेरा न बोलना बहुत देर तक खलेगा
एक न एक दिन तेरा घर भी जलेगा
नज़र बंद हो अपनी बोई नफरतों में
फिर रहीम और कबीर कहाँ मिलेगा
चाँद को चुराके रात को दोष देते हो
इंतज़ार करो , आसमाँ भी पिघलेगा
जाति,धरम,नाम सबसे तो खेल लिया
अब कैसे कृष्ण , कैसे राम निकलेगा
पानी,हवा,मिटटी सब तो बँट गए हैं
किस आँगन में अब गुलाब खिलेगा
सब को बदल दिया खुद को छोड़के
— सलिल सरोज