व्यंग्य – आंखों का अंकगणित और सामान्य सूत्र
आंखें अनमोल हैं, अद्भुत हैं। संपूर्ण समष्टि को अपने भीतर बसाने की आंखों में अभूतपूर्व क्षमता है। आंखें ईश्वर द्वारा मनुष्य को बख्शा बेहतरीन तोहफा है। हालांकि, आंखें हैं तो शरीर का बहुत ही छोटा अंग पर इससे ही दुनिया का आकार है, रंग-रूप साकार है। आंखों में नींद बसती है और नींदों में बसते हैं सपने। इसलिए आंखें सपनों का घर भी है। आंखों को बोलने के लिए शब्दों की आवश्यकता नहीं पड़ती। जो काम जुबां नहीं कर सकती, वो काम आंखें मौन की भाषा में ही कुछेक संकेतों के माध्यम से कर देती हैं। आंखों का अंकगणित तो कुछ ऐसा है कि यदि एक आंख बंद हो जाये तो बवाल हो जाये। भले ही यह एक आंख किसी असुंदर स्त्री को देखकर ही क्यों न बंद हुई हो, सवाल दर सवाल हो जाये। मात्र एक आंख के बंद होने से आप प्रेमी या लोफ़र घोषित किये जा सकते हैं। यह दोनों बातें देखने वाली पार्टी के ऊपर निर्भर करती है। वैसे यह कला लोकमानस में आंख मारने के नाम से अधिक प्रचलित है। आंख मारने से आगे वाला न तो मरता है और न ही डरता है। लेकिन स्वीकृति मिल जाये तो बहुत कुछ करके ही दम लेता है। आंखों के अंकगणित का दूसरा सूत्र है – दोनों आंखें बंद करना। दोनों आंखें तीन ही टाइम बंद होती हैं – एक तो सोते वक्त, दूसरा हमेशा के लिए सोने पर और तीसरा किसी को श्रद्धांजलि देते वक्त, ध्यान करते वक्त या कचरा आंखों में जाने पर भी आंखें बंद हो जाती हैं। इस सृष्टि पर कुछ प्राणी ऐसे भी पाये जाते हैं जिनकी दोनों आंखें इन तीनों स्थिति के अलावा भी बंद ही रहती है। ये प्राणी गांधीजी के चौथे बंदर के नाम से विश्व में जाने पहचाने जाते हैं।
अब आते हैं आंखों के अंकगणित के तीसरे सूत्र पर यानी कि आंखों को टेढ़ा करने का सूत्र मतलब तिरछी नजर। जब भी व्यक्ति अपनी आंखों को तिरछा करता है, तो वह व्यंग्यकार बन जाता है। वह दुनिया को 45 डिग्री के ऐंगल से देखने लग जाता है। वह उंगली टेढ़ी करके घी निकालने के बाद घी को टेढ़ा है पर मेरा है समझने की गलतफहमी का शिकार हो जाता है। वह ऐसी धारदार लेखनी चलाता है कि जिससे सारे आड़े-टेढ़े काम करने वाले सरेंडर हो जाते हैं। ये टेढ़ी दृष्टि मीठी छुरी की तरह काम करती है। ये मुजरा देखने वाले से लेकर मरने वाले तक को मजा देती है और अंत में गुनहगार को सजा भी देती है। अब आते हैं चौथे सूत्र पर जिसमें आंखों की पुतलियां एक जगह स्थिर रहती हैं पर उसके आस-पास की स्वेत जमीन लाल होने लगती है। जब आंखों में रक्त उतर आता है। तब व्यक्ति आक्रोश की अग्नि में झुलस रहा होता है। खून की प्यासी हो चुकीं आंखें सबसे ज्यादा खूंखार होती हैं। उसके भयावहता के भय से भूत भी भाग जाते हैं, तो भूतों को भगाने वाले बाबा भी बाबियों के संग डेरा सिमट कर जान बचाने लग जाते हैं। आंखें लाल नहीं होती, तो हमारी भारत माता आजाद नहीं होती। आंखें लाल होने के बाद भी नेक होती है क्योंकि वह सत्य का साथ देने के लिए अपना रंग बदलती है। यह लाल रंग आंखों की ईमानदारी का प्रतीक होता है।
पांचवा सूत्र – आंखों का अपेक्षा से अधिक बड़ा होना। जब भी आंखें यह एक्शन करती है, तो समझ लेना चाहिए कोई महान व्यक्तित्व कालाधन भारत लाने, कश्मीर समस्या सुलझाने, या फिर राम मंदिर निर्माण का मुद्दा हल करने जैसी बात कर रहा है। आंखों की ये भाव-भंगिमा हवा में उड़ते हुए इंसान को देखकर या फिर हवा में लंबी-लंबी फेंकने वाले की बातें सुनने के बाद ही होती है। छठवां सूत्र – आंखों का हंसना और हसीना का फसना। आंखें जब कुछ विचित्र देख लेती हैं, तो वह हंस देती हैं और हसीना हंसकर ‘हां’ कर देती है। हंसती हुए आंखें किसी भी देश के लोकतांत्रिक होने का सच्चा सबूत होती हैं। लेकिन भारतीयों की आंखों से आजादी के इतने वर्षों के उपरांत भी हंसी गायब है। दांत दिखाने वाली हंसी में मिलावट हो सकती है, लेकिन आंखों की हंसी निर्मल होती है। आंखों की हंसी लौटाने के दावे पर अब चुनाव होने चाहिए।
सातवां सूत्र – आंखों से गंगा बहना। आंखों से दो ही समय गंगा बहती है। एक तो खुशी के वक्त और दूसरी गम के वक्त। भारत में यह गंगा आज अपनी दयनीय स्थिति को देखकर रो रही है। इसको मां मानने वाले लोग ही इसका मर्दन करने पर तुले हैं। आंखों की गंगा जब गम के कारण रोना बंद करेगी, तभी हिन्दुस्तान में खुशहाली आ सकेगी। आठवां सूत्र – आंखों ही आंखों में। गले से गले मिलने से पहले आंख से आंख मिलानी पड़ती है। जब आंखों ही आंखों में इजहार होता है, तभी प्यार होता है। प्यार का पैमाना आंखें होती हैं। बेशक, उनका संबंध देह से नहीं बल्कि मन से जुड़ा होता है। नौवां सूत्र – आंख फेरना या आंखें चुराना। अक्सर चुनाव चले जाने के बाद हमारे नेता हमसे आंख फेरने लग जाते हैं। वे वायदों से मुकर कर आंखें चुराते ही नहीं बल्कि अपनी आंखें चार भी करने लग जाते हैं। दसवां सूत्र – आंखों के मतलब हजार। आंखों के कई मतलब और भी हैं। आंखों में बसंत भी है, तो पतझड़ भी और सावन भादो भी। आंखों में अफसाने भी हैं, तो रसिक दीवाने भी। कोई आंखों का तारा होता है, तो कोई आंखों को फूटी आंख नहीं भाता है। बस, दुआं यह है कि आंखों से गोलियां भले चले, पर किसी का जिस्म छलनी न हो। कोई किसी की आंखों से गिरकर हमेशा के लिए अपनी आबरू न खो दो। आंखों को कभी हवस की भूख न लगे और आंखों से मर्यादाओं का पर्दा कभी उठ न पाए। भले इंसान की अर्थी क्यों न उठ जाये।
— देवेन्द्रराज सुथार