ऋषि दयानन्द के समाज सुधार के कार्य
ओ३म्
आर्यसमाज के इतिहास में महात्मा नारायण स्वामी जी का गौरवपूर्ण स्थान है। आप आर्यसमाज के शीर्ष विद्वान एवं ऋषिभक्त प्रभावशाली नेता थे। योग में आपकी गहरी रूचि थी और आपने ध्यान व समाधि का अभ्यास किया था। आपने योगदर्शन का भाष्य भी किया है। हमारे मित्र व गुरु प्रा0 अनूप सिंह जी इस योगदर्शन भाष्य को उत्तम श्रेणी का मानते थे। प्रा0 अनूप सिंह योग के प्रमुख गुरु स्वामी योगेश्वरानन्द जी के शिष्य थे। योगेश्वरानन्द जी महात्मा आनन्द स्वामी जी के भी योग गुरु रहे हैं। महात्मा नारायण स्वामी जी ने 11 उपनिषदों का भाष्य किया है। यह भाष्य वर्तमान में श्री अजय कुमार आर्य, मैसर्स विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली तथा श्री प्रभाकरदेव आर्य, मैसर्स श्रीघूडमल प्रह्लादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास, हिण्डोन सिटी से उपलब्ध है। महात्मा नारायण स्वामी जी ने अपनी आत्म–कथा भी लिखी है जिसका सभी आर्यों को अध्ययन करना चाहिये। हैदराबाद आर्य सत्याग्रह के आप फील्ड मार्शल बनाये गये थे। आपके नेतृत्व में हैदराबाद आर्य सत्याग्रह अपने उद्देश्यों की पूर्ति कराने में सफल हुआ था। पूरे भारत से आर्य बन्धु इस सत्याग्रह में सम्मिलित हुए थे। परतन्त्र भारत में सत्यार्थप्रकाश पर सिन्ध में प्रतिबन्ध लगा तो वहा भी सत्याग्रह का नेतृत्व महात्मा नारायण स्वामी जी ने ही किया था और इस सत्याग्रह के प्रभाव से सत्यार्थप्रकाश पर लगा प्रतिबन्ध हटा लिया गया था। स्वामी श्रद्धानन्द जी की 23 दिसम्बर सन् 1926 में एक मुस्लिम धर्मान्ध व्यक्ति ने गोली मार कर हत्या कर दी थी। उनकी हत्या के बाद महात्मा नारायण स्वामी जी श्रद्धानन्द जी के निवास श्रद्धानन्द–भवन में रहे थे। आपने गुरुकुल वृन्दावन का भी संचालन किया था और उसे कीर्ति के शिखर पर पहुंचाया था। महात्मा जी के नाम पर ही आर्य प्रतिनिधि सभा, उत्तर प्रदेश के भवन का नाम ‘‘महात्मा नारायण स्वामी भवन” रखा गया था।
महात्मा नारायण स्वामी जी सार्वदेशिक सभा के प्रधान भी रहे थे। सन् 1925 में आपके नेतृत्व में ही मथुरा में ऋषि दयानन्द का जन्म शताब्दी समारोह आयोजित किया था जो उपस्थिति एवं सुव्यवस्था की दृष्टि से बहुत सफल रहा था। महात्मा जी ने उत्तराखण्ड के कुमांऊ मण्डल में दलितों को सवर्णों के अत्याचारों से बचाया था। उन्होंने दलितों को आर्य शब्द दिया था। आज भी वहां के बन्धु अपने नामों के साथ आर्य शब्द लगाते हैं। वहां एक कुप्रथा यह भी थी कि एक दलित समुदाय के लोग अपनी पुत्रियों से वैश्यावृत्ति कराते थे। इसका उन्मूलन भी महात्मा नारायण स्वामी जी ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर किया था जिसमें स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज का भी योगदान था। आज कुमायूं में रामगढ़ तल्ला में उनका स्थापित किया हुआ महात्मा नारायण स्वामी आश्रम विद्यमान है। महात्मा नारायण स्वामी इण्टर कालेज नाम से एक राजकीय विद्यालय भी संचालित हो रहा है। हमें महात्मा नारायण स्वामी आश्रम, रामगढ़–तल्ला में दो–तीन बार जाने का अवसर मिला है। पिछले वर्षों में भी आर्य प्रतिनिधि सभा, उत्तर प्रदेश ने वहां अपनी बैठकें व उत्सव किये हैं। अस्वस्थ होने के कारण हम चाह कर भी नहीं जा सके। महात्मा जी का यह आश्रम सुरम्य पहाड़ियों के मध्य वनों के बीच स्थित है। वातारण हमेशा शीतयुक्त रहता है। आश्रम के सामने एक नदी भी बहती है। वातावरण पूर्ण शान्त एवं प्रदुषण से रहित है। आर्यसमाज को इस आश्रम का पुनरुद्धार कर यहां कुछ भवन एवं यात्रियों की सुविधाओं के लिये आवास व धर्मशाला का निर्माण करना चाहिये जिससे अवकाश के दिनों ऋषि भक्त यहां आकर कुछ समय साधना में व्यतीत कर सकें। महात्मा जी ने कई अन्य ग्रन्थ भी लिखे हैं। उनकी लिखी एक पुस्तक ‘‘महर्षि दयानन्द की विशेषताएं’’ है। इस पुस्तक से ही हम आज ऋषि दयानन्द के समाज–सुधार कार्यों का उल्लेख यहां कर रहे हैं। महात्मा जी ने ऋषि दयानन्द के समाज–सुधार के कार्यों पर निम्न शब्दों में प्रकाश डाला है।
सामाजिक सुधार के सम्बन्ध में भी ऋषि दयानन्द का हृदय बड़ा विशाल था और उन्होंने कुरीतियों को समाज से निकाल देने का प्रशंसनीय यत्न किया। उदाहरण के लिए कतिपय सुधारों का यहां उल्लेख किया जाता है।
(क) बाल विवाह का प्रचार और ब्रह्मचर्य का लोप हो जाने से शारीरिक बल का ह्रास हो रहा था, इसीलिए दूसरों की अपेक्षा हिन्दू जाति निर्बल समझी जाने लगी थी। इसी कारण उसे समय–समय पर अपमानित भी होना पड़ा था। स्वामी दयानन्द ने इसके विरुद्ध प्रबल आवाज उठाई और ब्रह्मचर्य की महिमा अपने उपदेशों और अपने क्रियात्मक जीवन से प्रकट कर ब्रह्मचर्य का सिक्का लोगों के हृदय में जमा दिया। उसी का फल है कि देश में जगह–जगह ब्रह्मचर्याश्रम खुले। सरकारी विश्व–विद्यालयों ने भी अनेक जगह नियम बना दिये कि हाई स्कूलों में विवाहित विद्यार्थियों का प्रवेश न हो। कम उम्र में विवाह न होने देने के लिए शारदा ऐक्ट भी बना।
(ख) इसी बाल–विवाह में वृद्ध–विवाह ने भी योग दे रखा था और दोनों का दुष्परिणाम यह था कि जाति में करोड़ों विधवाएं हो गयी थीं, जिनमें लाखों बाल–विधवाएं भी थीं और उनमें हजारों ऐसी भी विधवाएं थीं जिनकी आयु एक एक, दो–दो वर्ष थी। भू्रण–हत्या, गर्भपात, नवजात–बालवध आदि अनेक पातक हिन्दू जाति के लिये कलंक का टीका बन रहे थे। इन दुखित विधवाओं का दुःख ऋषि दयानन्द का दयालु हृदय किस प्रकार सह सकता था? इसीलिये विधवा विवाह को प्रचलित करके इनके दुःखों को दूर करने की भी चेष्टा की।
(ग) मातृशक्ति होते हुए भी स्त्रियों का जाति में अपमान था, वे शिक्षा से वंचित करके परदे में रखी जाती थी, उनके लिए वेद का द्वार बन्द था। उनको यदि श्रीमत् शंकराचार्य ने नरक का द्वार बतला रखा, तो दूसरी ओर गोस्वामी तुलसीदास जी ‘ढोल, गंवार, शूद्र, पशु–नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी’ का ढोल पीट रहे थे, परन्तु ऋषि दयानन्द ने उनके लिये भी वेद का द्वार खोला। इन्हें शिक्षा की अधिकारिणी ठहराया, पर्दे से निकाला, उन्हें मातृ–शक्ति के रूप में देखा और उनका इतना अधिक मान किया कि हम ऋषि दयानन्द को एक छोटी बालिका के आगे उदयपुर में नतमस्तक देखते हैं। उसी का फल है कि आज कन्याओं की ऊंची से ऊंची शिक्षा का प्रबन्ध हो रहा है।
(घ) जन्म की जाति प्रचलित हो जाने से चार वणों की जगह हिन्दू जाति हजारों कल्पित जातियों और उपजातियो ंमें विभक्त हो रही थीं। प्रत्येक का खान–पान, शादी–ब्याह पृथक्–पृथक् था। इन मामलों में जाति उपजाति का पारस्परिक सम्बन्ध न होने से हिन्दू जाति एक नहीं थी और न उसका कोई सम्मिलित उद्देश्य बाकी रहा था। न उस उद्देश्य की पूर्ति के सम्मिलित साधन उसके अधिकार में थे। ऋषि दयानन्द ने इस जन्म की जाति को समूल नष्ट करने की शिक्षा दी थी, क्योंकि यह सर्वथा वेद विरुद्ध थी। उसी के फलस्वरूप अब हिन्दुओं में अन्तर्जातीय सहभोज और अन्तर्जातीय विवाह होने लगे और इनके प्रचारार्थ अनेक संस्थाएं बन गयीं।
(च) दलित जातियों के साथ उच्च जातियों का व्यवहार अत्यन्त आक्षेप के योग्य और उनके लिए असह्य भी था। उसी के दुष्परिणाम स्वरूप बहुसंख्या में दलित भाई ईसाई और मुसलमान बन रहे थे। ऋषि दयानन्द ने इसके भी विरुद्ध आवाज उठाई और उन्हें खान–पान आदि सहित उन सभी अधिकारों के देने का निर्देश दिया जो उच्च जातियों को प्राप्त हैं। देश भर में ऋषि के इस निर्देश की पूर्ति के लिए जद्दोजहद हो रहा है ओर हिन्दुओं के मध्य से छूत–अछूत का भेद तथा छुआछूत का विचार ढीला पड़ रहा है।
(छ) दान की व्यवस्था की ओर भी स्वामी दयानन्द ने ध्यान दिया। मनुष्य को निकम्मा बनाने के लिए दान देने की कुप्रथा प्रचलित थी, उसका बलपूर्वक खंडन किया और उसके स्थान पर देश काल तथा पात्र को देखकर सात्विक दान देने की प्रथा प्रचलित की।
उपर्युक्त पंक्तियों में हमने महात्मा नारायण जी के द्वारा वर्णित ऋषि दयानन्द के सामाजिक सुधारों का उल्लेख किया है। पाठक इसे पढ़कर लाभान्वित होंगे, ऐसा हम अनुभव करते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य