गाय को हम सिर्फ पूजा के समय ही मां क्यों मानते हैं?
हमारी भारतीय संस्कृति में नित्य कोई न कोई तीज-त्यौहार, पर्व मनाते है । भादवा बदी द्वादशी के दिन गौ माता, गौ वंश पूजा पूजा का विशेष पर्व आता है “गौ-वत्स पूजा और बछ बारस” जिन्हे देश के विभिन्न जगह पर मनाया जाता है और गाय की पूजा की जाती है।
गाय रूपी संपदा हमारे पास उपलब्ध हैं जिसे हम पवित्र और मां का दर्जा देते है, मगर इस मामले में स्थित शर्मनाक है। सिर्फ पूजा करने के समय ही हमें पवित्र गाय की याद आती हैं, वर्ना तो हम इसे एक पालतू जानवर ही समझते हैं। हमारा विश्वास कि इसकी उत्पादकता इतनी कम है कि यह सिर्फ आधा से किलो ग्राम तक ही दूध दे सकती हैं। इसलिए दूध की उत्पादकता बढाने का हमारे लिए श्रेष्ठ तरीका यही है कि विदेशी होल्सटीन फ्रीजियन या जर्सी नस्ल के साथ घरेलू नस्ल का क्राॅस करा दिया जाए। इसलिए हम शायद यही करते आ रहे हैं। हमारे देश में मवेशियों की सत्ताईस शानदार नस्ल मौजूद हैं। वह सभी इतनी अनुत्पादक, इतनी अनुपयोगी कैसे बन गई? दुनिया में सबसे छोटी वाइचूर जैसी नस्ल, जिसे प्रतिदिन सिर्फ दो किलो चारे की जरूरत होती हैं, हमारी धरती से खासतौर पर गायब हो गई हैं। विडंबना है कि यह नस्ल इंग्लैंड की रीड़िंग युनिवर्सिटी में मौजूद हैं। भारत में मवेशियों की तादाद दुनिया में सबसे अधिक है, लगभग तीन करोड़ हैं। इन सत्ताईस में से हमारी आधी नस्लें लुप्त सी हो चुकी हैं। क्राॅस-ब्रीड़िंग की अधिकता की वजह से हमारी लगभग 80 फीसदी गायें नस्ल की पहचान खो चुकी हैं। दूध के मामले में प्रतिवर्ष आठ करोड़ टन से अधिक उत्पादन के साथ दुनिया में हम भारतीय अव्वल हैं। अमेरिका का स्थान दूसरे नंबर पर आता हैं। अधिकारिक रूप से इसका श्रेय उच्च दूध उत्पादक नस्लों से आयात और घरेलू नस्ल के साथ उनकी क्राॅस-ब्रीड़िंग को दिया जाता हैं। मगर क्या यह सच है कि हमारी गायों की दूध उत्पादकता बहुत कम हैं? क्या यह नस्लें पूरी तरह से अनुपयोगी हो चुकी हैं? राजस्थान की सुप्रसिद्ध थारपारकर नस्ल का उदाहरण लीजिए। इसका नाम ही थार, पार, कर हैं अर्थात यह थार को पार कर सकती हैं। जर्सी या होल्सटीन फ्रीजियन नस्ल की गाय को आधा किलोमीटर चलाने की कोशिश कीजिए आपको हकीकत पता चल जाएगा। कुछ समय पहले एफओ के एक अध्ययन में यह चौंकाने वाली बात सामने आई है कि ब्राजील भारतीय नस्लों की गाय के निर्यात में सबसे आगे हैं । क्या कहीं कुछ गलत नहीं हो रहा हैं? ब्राजील हमारें रहा की नस्लों के संवर्धन में हमसे भी आगे हैं।
1960 के दशक की शुरुआत में ब्राजील ने भारत की छह नस्लें मंगाई थी। दरअसल भारतीय नस्ल के मवेशी जब ब्राजील पहुंचे तब पता चला कि यह दूध देने में भी आगे हैं। आज छह में से तीन नस्लें गुजरात की गिर और आन्ध्रपदेश और तमिलनाडू की कांकरेज व ओंगोल वहां होल्सटीन फ्रीजियन व जर्सी के बराबर दूध दे रही हैं। अगर कल को ब्राजील से भारत में गायों का आयात होने लगे तो कोई हैरत नही होगी। अगर हम सभी ध्यान देते तो हमारी गाय सड़कों पर भटकने वाला आवारा पशु नहीं मानी जाती बल्कि एक उच्च दूध उत्पादक सम्मानीय मवेशी होती। अब वक्त आ चुका है कि पारंपरिक नस्ल वाले अपने पशुधन की कीमत हम पहचानें और न सिर्फ इनके संरक्षण बल्कि ‘आर्थिक प्रगति के संसाधन के रूप में इनके इस्तेमाल के लिए देशव्यापी कार्यक्रम शुरू करें।’
एक बड़ी विडंबना है कि स्वतंत्रता के 73 वर्षो के बाद भी हमारे शिक्षा पाठ्यक्रमों में भारतीय संस्कृति की आधार गौ माता के वैज्ञानिक, धार्मिक,सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक महत्व के बारे में कोई जानकारी नहीं है, जहां तक मेरी जानकारी है वर्तमान में भारत में कहीं पर भी किसी भी राज्य में कक्षा एक से लेकर बीए, बीकॉम तक गौ माता के बारे में कोई पाठ या कोर्स नहीं है। हमनें ग्रंथों में ऐसा पढा है कि गाय के गोबर में लक्ष्मी का वास होता है परंतु उसी लक्ष्मी के लिए हमें सहयोग मांगना पड़ता है। गौशालाएं खोलनी पड़ती है, इनके लिए चंदा इकट्ठा करना पड़ता है। कोई भी व्यक्ति भैंस को लावारिस नहीं छोड़ता है, भेड़-बकरी और अपने कुत्ते तक को लावारिस नहीं छोड़ते हैं परंतु सर्वगुण संपन्न गौमाता को लावारिस छोड़ देते है यह पाश्चात्य शिक्षा सभ्यता का सबसे बड़ा घृणित नमूना हैं।
आज गौ वंश अपने आपको असहाय, असुरक्षित महसूस कर रहा है जो सर्वविदित है हमें इनकी रक्षा और संवर्द्धन के लिए कदम उठाने चाहिए सरकार भी इस गाय की रक्षा के लिए विशेष योजना बनाएं और हर गांव कस्बे में गौशाला बनाकर सुरक्षा के कदम उठाएं और लावारिस, असहाय गौ वंश का संरक्षण किया जाए।