लघुकथा

उम्मीद

‘सब्जी वाली…. सब्जी वाली… ले लो दीदी, गोभी, भिंडी, टमाटर, धनिया, मिर्च…।’ प्रत्येक रविवार को वह सायकिल से सब्जी बेचा करती । एक रविवार धनिया लेने के बहाने उनको रोका । सब्जियों के दाम पूछा, थोड़ी सी हिम्मत जुटा कर पूछा -‘ दीदी..बुरा न मानो तो एक बात पूछूँ ?’

‘ हाँ पूछो …’ थोड़ी सी मुस्कुराई ।
‘ आपको सब्जी बेचते पिछले डेढ़ साल से देख रहा हूँ, आपके पति क्या करते हैं ? जो आप सब्जी बेच रही हो ?’ एक सांस में अपने सारे सवाल रख दिया ।
उनकी हाव भाव देखकर ऐसा लगा कि मैंने गलत सवाल पूछ लिया । मुस्कुराहट गायब, चेहरा उतर सा गया । उन्होंने जवाब दिया -‘ मैंने अपने पति को छोड़ दिया ।”
” क्यों दीदी…?” मुझे बहुत आश्चर्य हुआ ।
” रोज शराब पीकर आते और लड़ाई झगड़ा कर मार पीट करते थे । पाँच साल का एक बच्चा है, जो मेरी जिंदगी है। अपने बच्चे के लिए मैंने यह निर्णय लिया उस शराबी के छत्र छाया में अपने बच्चे की भविष्य अंधकारमय हो गया था । माँ हूँ भाई, अपने बच्चे को बहादुर बनाउँगी, खुब पढ़ाऊँगी, ताकि काबिल बने और बुढ़ापे का सहारा बन सके ।” इस उम्मीद के साथ एक माँ सायकिल पर पैडल मारते आगे बढ़ गई ।
भानुप्रताप कुंजाम’अंशु’

One thought on “उम्मीद

  • डाॅ विजय कुमार सिंघल

    अच्छी लघुकथा !

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