धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

अग्निहोत्र यज्ञ एक आध्यात्मिक एवं पूर्ण कल्याणप्रद कर्म है

ओ३म्

वैदिक धर्म का आरम्भ ईश्वर प्रदत्त वेदज्ञान से सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न ऋषियों व मनुष्यों से हुआ। ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान तथा सर्वानन्दयुक्त सत्ता है। उसका दिया हुआ वेद ज्ञान इस सृष्टि का सत्य ज्ञान है। ईश्वर ने सृष्टि क्यों बनाई है और मनुष्यों को क्या कर्तव्य है, इसका पूरा ज्ञान वेदों में दिया गया है। वेदों में ईश्वर के सत्य स्वरूप का ज्ञान दिया गया है और इसके साथ ही ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना करने तथा वायु-जल-पर्यावरण की शुद्धि हेतु गोघृत तथा वनौषधि आदि पोषक पदार्थो से अग्निहोत्र यज्ञ करने का विधान किया है। सृष्टि के आरम्भ से ईश्वर की उपासना एवं अग्निहोत्र यज्ञ की परम्परा चली आ रही है। महाभारत युद्ध के बाद यज्ञ की परम्परा कुछ विकृतियों को प्राप्त हो गई थी परन्तु ऋषि दयानन्द के आने पर वेदों का पुनरुद्धार हुआ और अग्निहोत्र यज्ञ सहित सभी वेद पोषित प्रथायें पुनः अपने शुद्ध व हितकारी स्वरूप के साथ प्रचलित हुईं। मनुष्य की आध्यात्मिक, शारीरिक एवं भौतिक उन्नति सहित उसके निरोगी एवं स्वस्थ रहने के लिये अग्निहोत्र यज्ञ की महत्वपूर्ण भूमिका है। ऋषि दयानन्द ने बताया है कि जब तक भारत में सभी घरों में अग्निहोत्र यज्ञ हुआ करता था तब तक हमारा देश सभी सुखों से पूरित था। यदि अब भी हमारा देश व विश्व अग्निहोत्र यज्ञ को अपना ले तो पुनः सभी मनुष्य दुःखों व तनावों से मुक्त तथा सुख एवं शान्ति से युक्त हो सकते हैं। यज्ञ से अनेक लाभ होते हैं। यज्ञ में देवपूजा, संगतिकरण एवं दान का समन्वय किया जाता है। देवपूजा से मनुष्य ईश्वर सहित विद्वानों की संगति कर उनके ज्ञान एवं अनुभवों से लाभान्वित होता है। दान में हम विद्वानों से उनके ज्ञान एवं अनुभव प्राप्त करते हैं तथा हमें अन्यों के दुःख दूर करने और सुख पहुचानें की प्रेरणा भी मिलती है। यह एक ऐसा कृत्य है कि इससे होने वाले लाभों को अन्य किसी उपाय से प्राप्त नहीं किया जा सकता। इससे ईश्वर सहित सभी विद्वदजन प्रसन्न एवं सन्तुष्ट होते हैं। वायु एवं जल आदि जड़ देवताओं को भी इससे पोषण प्राप्त होता है। अतः सभी मनुष्यों को यज्ञीय कार्यों को यथोचित महत्व देना चाहिये।

यज्ञ अनेक प्रयोजनों व अनेक नामों से किया जाता है। गृहस्थियों के लिए दैनिक देव-यज्ञ का विधान है जिसे प्रातः व सायं दोनों समय किया जाता है। महर्षि दयानन्द ने पंचमहायज्ञ विधि एवं संस्कारविधि ग्रन्थों की रचना है व इनमें यज्ञ की विधि पर विस्तार से प्रकाश डाला है। वेदों में यज्ञ करने के स्पष्ट निर्देश हैं। यज्ञ करने से मनुष्य की सभी उचित प्रार्थनायें एवं इच्छायें पूरी होती है। यज्ञ में समिधादान का प्रथम तथा पंचघृताहुति के मन्त्र समान हैं। स्विष्टकृदाहुति का मन्त्र भी एक विशिष्ट मन्त्र है जिसमें ईश्वर से हमारी अनेक प्रकार की आवश्यकतायें एवं इच्छायें पूरी करने की प्रार्थना की गई है। हम इन दोनों मन्त्रों के अर्थ यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। समिदाधान एवं पंचघृताहुति मन्त्र से प्रार्थना की जाती है कि सब पदार्थों में विद्यमान परमेश्वर! मेरी आत्मा अग्निस्वरूप परमेश्वर के लिए यज्ञ की समिधारूप है। हे प्रकाशस्वरूप ज्ञानस्वरूप परमेश्वर! आप मुझमें प्रकाशित हूजिये और मेरे इस यज्ञ को तथा मुझे बढ़ाईये। मुझे पुत्र-पौत्र, सेवक आदि अच्छी प्रजा से, गौ आदि पशुओं से, वेद-विद्या के तेज से और धन-धान्य सहित घृत, दुग्ध, अन्न आदि से समृद्ध करें। यह घृत आहुति सर्वव्यापक परमेश्वर की प्रसन्नता के लिये मैं दे रहा हूं। यह लिए न होकर समाज व प्राणीसमूहों के कल्याण के लिये है। स्विष्टकृदाहुति मन्त्र से दी जाने वाली घृत आहुति में यजमान ईश्वर से प्रार्थना करता है कि मैंने अपने इस यज्ञ में जो विधि से अधिक अथवा न्यून कर्म किया है, अनजाने में हुई इस त्रुटि के लिये ईश्वर मुझे क्षमा करे। सब प्राणियों की इच्छाओं को जानने वाला परमेश्वर मेरी सभी शुभ इच्छाओं को पूर्ण कर देवे। प्राणियों की शुभ इच्छाओं को पूर्ण करने वाले, यज्ञ को सफल बनाने वाले तथा प्रायश्चितरूप में दी गई आहुतियों को स्वीकार करने तथा यजमान की कामनाओं को पूर्ण करनेवाले परमेश्वर के लिये यह स्विष्टकृदाहुति हमने दी है। परमात्मा हमारी सब कामनाओं को पूर्ण करे तथा मेरा यज्ञ सफल हो। इन दो मन्त्रों के द्वारा की गई प्रार्थनाओं से यह विदित होता है कि यज्ञ का प्रयोजन एवं लाभ क्या हैं? यह लाभ व प्रयोजन अन्य किसी साधन से पूरे नहीं होते। अतः यज्ञ करना हमारा कर्तव्य है एवं अपने पूरे परिवार, समाज व स्वदेश को सुखी व उन्नत बनाने का सरलतम साधन कहा व माना जा सकता है।

अग्निहोत्र-यज्ञ के आरम्भ में हम आचमन तथा इन्द्रिय स्पर्श करते हैं जिससे यज्ञ का प्रयोजन ज्ञात होने सहित हम ईश्वर से शरीर व इन्द्रियों को निरोग व स्वस्थ रखने की प्रार्थना करते हैं। यह प्रार्थना ऐसी ही होती है जैसे कि कोई छोटा निष्पाप बच्चा अपनी माता से कहे कि उसे भूख लगी है, उसे भोजन दे दो। माता उसकी प्रार्थना स्वीकार कर उसे भोजन कराती है। परमात्मा भी हमारी माता के समान है। वह भी हमारी प्रार्थना को पूरी करते हैं। इसके बाद हम ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना के मन्त्रों सहित स्वस्तिवाचन एवं शान्तिकरण के मन्त्रों का पाठ भी करते हैं। इन मन्त्रों में श्रेष्ठ एवं उच्च कोटि की प्रार्थनाओं सहित इनसे ईश्वर की स्तुति व उपासना भी होती है। उपासना के लाभ ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में वर्णित किये हैं। उपासना से हमारे दुर्गुण, दुव्र्यसन एवं दुःखों की निवृत्ति होती है और ईश्वर के अनुरूप गुणों का ग्रहण एवं धारण होता है। एक प्रकार से यह संस्कार देने एवं चरित्र निर्माण की प्रक्रिया है। इससे मनुष्य का जो जीवन व चरित्र सुधरता व बनता है वह अन्य किसी प्रकार से नहीं बनता है। ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना सहित स्वस्तिवाचन एवं शान्तिकरण के मन्त्रों से मनुष्य को सच्चा आध्यात्मिक जीवन जीने का अवसर मिलता है। अन्य मतों के लोग इस प्रक्रिया से दूर होने के कारण आंशिक व छोटी मात्रा में ही आध्यात्मिक होते हैं जबकि वैदिक धर्मी पूर्णरूपेण धार्मिक एवं आध्यात्मिक जीवन का धनी होता है। कई मत तो ऐसे हैं जो आध्यात्मिक कम अनाध्यात्मिक अधिक हैं एवं दूसरों के प्रति मानवीय संवेदनाओं से रहित हैं। विज्ञ लोग इसकी समीक्षा एवं विश्लेषण करके देख सकते हैं।

अग्निहोत्र-देवयज्ञ में चार प्रकार के द्रव्यों का यज्ञकुण्ड की अग्नि में आहुति देने का विधान है। यह हैं गोघृत, केसर व कस्तूरी आदि सुगन्धित पदार्थ, वनौषधि, वनस्पतियां, सोमलता व गुग्गल आदि ओषधियां, मिष्ट एवं बल देने वाले शुष्क पोषक फल आदि। इन पदार्थों की यज्ञ की प्रचण्ड अग्नि में मन्त्र बोलकर आहुति देने से एक ओर जहां अग्नि उस आहुत द्रव्य को सूक्ष्म व हल्का बनाती है वहीं तीव्र अग्नि से उनकी भेदन शक्ति व सामथ्र्य में वृद्धि होने से उन सूक्ष्म पदार्थों को पूरे वातावरण में फैला देती है। इससे इन पदार्थों के समन्वित गुणों का लाभ यजमान व यज्ञ के समीप उपस्थित लोगों सहित दूर-दूर तक के प्राणियों को होता है। यज्ञ करने से रोग उत्पन्न करने वाले अनेक किटाणुओं का नाश भी होता है। प्राण वायु की गुणवत्ता में वृद्धि होने से भी यह स्वास्थ्यप्रद होती है। जिन मन्त्रों को यज्ञ में बोला जाता है उसमें भी ईश्वर से भिन्न-भिन्न प्रार्थनायें होती हैं जिससे परमात्मा से हमें उन प्रार्थनाओं के अनुरूप सुख लाभ प्राप्त होता है। यज्ञ का हमारी बुद्धि व ज्ञान की वृद्धि पर भी अनुकूल प्रभाव होता है। यज्ञ मनुष्य की सभी कामनाओं को सिद्ध करने वाला उपाय व साधन है। जो मनुष्य यज्ञ करता है वह निर्धन नहीं होता। यज्ञ करने का लाभ इस जन्म में भी होता है और इससे हमें मृत्यु के बाद भी उत्तम योनि व उत्तर परिवेश में मनुष्य का दैवीय गुणों से युक्त परिवारों में जन्म होता है जहां हमें धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की पूर्ति की सुविधायें प्राप्त होती है।

यज्ञ का प्रभाव सन्तानों पर भी पड़ता है। सन्तानें माता-पिता व परिवार के बड़े सदस्यों की आज्ञाकारी बनती हैं। यज्ञ हमें बताता है कि हमारे माता, पिता व आचार्यगण सभी देव हैं। हमें इनके प्रति जीवन भर कृतज्ञ रहना है व इनके ऋण से उऋण होने के लिये इनकी हर प्रकार से सेवा-सुश्रुषा करनी है। जिस राष्ट्र में बहुतायत जनता यज्ञ करती है, उस देश में सुख व समृद्धि होती है। हमारे देश के पूर्वजों ने अतीत में शताब्दियों तक यज्ञ आदि सुकर्म किये हैं। इसका प्रभाव आज भी देश में विद्यमान है। अतीत में ईश्वर तथा उसकी प्राप्ति के साधनों के ज्ञान के कारण हमारा देश विश्व गुरू था। इसमें यज्ञ का भी महत्वपूर्ण स्थान था। आज हमारा देश योग आदि के द्वारा आध्यात्मिक क्रान्ति की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है। यज्ञ भी आध्यात्मिक क्रान्ति में प्रमुख स्थान रहता है। बिना वेदों के प्रचार व प्रसार तथा उसके अनुकूल देश व विश्व के लोगों के आचरण के मनुष्य व समाज की दिशा व दशा नहीं बदल सकती। यज्ञ इन सब कार्यों को प्राप्त कराने में एक उपयोगी एवं महत्वपूर्ण साधन है। शास्त्रों ने कहा है कि यज्ञ श्रेष्ठतम कर्म है। यज्ञ से श्रेष्ठतम कोई कर्म नहीं है। यह भी हमारे प्राचीन विद्वान बता गये हैं कि यदि हम सुख व स्वर्ग के समान अपने घर का वातावरण बनाना चाहते हैं तो हमें यज्ञ अवश्य करना चाहिये। यज्ञ को इस भुवन की नाभि भी बताया गया है।

अग्निहोत्र यज्ञ से मनुष्य को निश्चित रूप से अनेकानेक लाभ होते हैं। यज्ञकर्ता सुखी, स्वस्थ एवं दीघार्यु होने सहित अभावों से मुक्त रहता तथा जीवन के सभी क्षेत्रों में उन्नति करता है। अतः सभी स्त्री-पुरुषों को यज्ञ की शरण में आना चाहिये। इसके करने में ही विश्व का व प्रत्येक मनुष्य का कल्याण निहित है। यज्ञ से मनुष्य को जीते जी व मृत्यु के बाद भी स्वर्ग व सुखों की प्राप्ति होती है, यह धु्रव सत्य है। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य