हम कहां से आये हैं और हमें कहां जाना है
ओ३म्
हम सब मनुष्यों का कुछ वर्ष पूर्व इस संसार में जन्म हुआ है और तब से हम इस शरीर में रहते हुए अपना समय अध्ययन-अध्यापन अथवा कोई व्यवसाय करते हुए अपने सांसारिक कर्तव्यों का निर्वाह कर रहे हैं। जब हमारा जन्म हुआ था तो हम अपने माता के शरीर से इस संसार में आये थे। माता के शरीर में हम कब व कैसे प्रविष्ट हुए थे, हममे से किसी को भी ज्ञात नहीं है? हम विज्ञान के उस नियम से परिचित हंै जो यह बताता है संसार में अभाव से भाव की उत्पत्ति नहीं होती और भाव का कभी अभाव नहीं होता। हम रचे हुए जो भी पदार्थ संसार में देखते हैं उनकी उत्पत्ति के उपादान एवं निमित्त कारण अवश्य होते हंै। भौतिक पदार्थों का उपादान कारण सूक्ष्म प्रकृति है जो सत्व, रजः व तमः गुणों वाली है। इस मूल तत्व प्रकृति से ही यह समस्त भौतिक जगत निमित्त कारण परमात्मा के द्वारा मानव सृष्टि के आरम्भ होने से पूर्व बनाया गया है। संसार में ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जिसका निर्माण बिना अन्य किसी पदार्थ के हुआ हो। मूल त्रिगुणात्मक प्रकृति पर विचार करते हैं तो यह किसी अन्य पदार्थ का विकार न होकर मूल द्रव्य व पदार्थ है जो अनादि, नित्य एवं भाव सत्ता व पदार्थ है। परमात्मा और आत्मा भौतिक पदार्थ न होकर अनादि और नित्य पृथक पदार्थ हैं। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप है और जीवात्मा भी सत्य और चेतन स्वभाव वाला अनादि व नित्य पदार्थ है। ईश्वर एक है परन्तु जीवात्मा संख्या की दृष्टि से अनन्त व असंख्य हैं जिसकी मनुष्यों के द्वारा गणना सम्भव नहीं है। इसके लिये अनन्त शब्द का प्रयोग किया जाता है जो कि उचित एवं यथार्थ है।
ईश्वर की दृष्टि में सभी जीवात्माओं की संख्या सीमित व गण्य कह सकते हैं। यह जीवात्मा अनादि, नित्य, सूक्ष्म, चेतन, अल्पज्ञ, एकदेशी, ससीम, जन्म-मरण धर्मा, कर्मशील तथा अपने पुण्य व पाप कर्मों का भोक्ता है। जीवात्मा को अपने किए हुए नए व पुराने कर्मों का फल ईश्वर की व्यवस्था से मिलता है। ईश्वर अपने सर्वान्तर्यामी स्वरूप से जीवों के सभी कर्मों का साक्षी होता है। ईश्वर की व्यवस्था से सभी जीव अपने सभी कर्मों का याथातथ्य फल भोगते हैं भले ही वह उन्होंने सबसे छुपकर या फिर रात्रि के अन्धकार में ही क्यों न किये हों। उपनिषदों में बताया गया है कि जिस प्रकार सद्यःजात गाय का बछड़ा हजारों गायों में अपनी मां को खोज लेता व पहचान लेता है, इसी प्रकार जीव के कर्म तब तक जीव का पीछा करते हैं जब तक कि वह उनका फल न भोग लें। जीव को कर्मों का फल ईश्वर देता है। कोई जीव अपने कर्मों का स्वयं फल भोगने के लिये तैयार नहीं होता जैसे कोई चोर यह नहीं कहता कि उसने चोरी की है, उसे दण्डित किया जाये। कर्म-फल विधान को जान लेने पर ही मनुष्य दुष्कर्मों का त्याग कर सद्कर्मों में प्रवृत्त होते हैं और देश व समाज अपराधों से रहित बनता है। ईश्वर ने जीवात्मा के सुधार व उसे सद्कर्मों में प्रेरित करने के लिए ही सृष्टि के आरम्भ में वेदज्ञान दिया है और वह अनादि काल से जीवों को उनके शुभाशुभ कर्मों का फल देता आ रहा है। हमारे कर्म ही हमारे जन्म व सुख-दुःखों का कारण होते हैं।
हम कहां से आये हैं? इस प्रश्न का उत्तर इस तथ्य में निहित है कि हम अनादि सत्ता हैं और इसी संसार व ब्रह्माण्ड में रहते आ रहे हैं। जीवात्मा जन्म-मरण धर्मा तथा कर्मों को करने वाला तथा कर्मों के फलों का भोगने वाला है। अतः इस जन्म से पूर्व हम मनुष्य या किसी अन्य योनि में रहते थे और वहां मृत्यु होने के बाद ही इस जन्म में अपने माता-पिता के पास व उनके द्वारा अपने कर्मों को फल भोगने व नये कर्मों को करने के लिये भेजे गये हैं। पूर्व जन्म में हम सब कहां व किस-किस योनि में थे, और कौन हमारे माता-पिता थे, इन सभी बातों को हम भूल चुके हैं। इसका एक कारण यह है कि पूर्वजन्म में हमारा जो शरीर था वह मृत्यु होने पर अग्नि के द्वारा व अन्य प्रकार से नष्ट हो चुका है। पूर्वजन्म में मृत्यु होने के बाद हमें भावी व नये माता-पिता के शरीर में प्रवेश करने में भी कुछ समय लगा होगा। माता के गर्भ में भी हम दस मास रहते हैं। इस अवधि में हमारी आत्मा व सूक्ष्म शरीर पर पूर्वजन्म के जो संस्कार व स्मृतियां होती हैं, वह विस्मृत होती रहती है। हम अपने इस जीवन में भी देखते हैं कि हमें अपने जीवन की सभी स्मृतियां स्मरण नहीं रहतीं। हमने कल, परसो व उससे पहले क्या क्या भोजन के पदार्थ खाये, किस रंग के कौन से वस्त्र किस दिन पहने, किन लोगों से मिलें, किनसे क्या-क्या बातें की व सुनी वह सब हमें स्मरण नहीं रहतीं। कुछ समय पूर्व हमारे मन में क्या क्या विचार आये व हमने किससे क्या बातें कीं, उन्हें शब्दशः स्मरण कर हम उनकी शब्दशः पुनरावृत्ति नहीं कर सकते। यह इंगित करता है कि हम जीवन में अनेक बातों को भूलते रहते हैं। जब हमें आज व कल की ही बहुत सी बातें स्मरण नहीं है तो फिर पूर्वजन्म की स्मृतियां न होना, हमारे पूर्वजन्म न होने आधार नहीं कहा जा सकता। हमारी आत्मा सनातन है और जिस प्रकार इसका यह जन्म हुआ है, और अपनी ही तरह अन्य आत्माओं के जन्म व मृत्यु को हम अपने दैनन्दिन जीवन में देख रहे हैं, उसी प्रकार से इस जन्म से पूर्व भी हमारी आत्मा के जन्म व मृत्यु की निरन्तर घटनाओं वा आवृत्तियों को हमे मानना होगा।
ऋषि दयानन्द जी ने पूर्वजन्म के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण बात यह कही है कि मनुष्य को एक समय में एक ही बात का ज्ञान होता है। हमारा मन ऐसा है कि इसे एक समय में एक से अधिक बातों का ज्ञान नहीं होता। हमें हर समय अपने होने का व अपनी सत्ता का ज्ञान रहता है। अतः हम पूर्व समय की व उससे भी सुदूर पूर्वजन्म की बातों को भूले हुए रहते हैं। इससे हम सबका पूर्वजन्म नहीं है यह सिद्ध नहीं होता। हम इस जन्म से पूर्व मनुष्यादि किसी योनि में रहे हैं, यह सुनिश्चित है। हमारे न होने का कोई प्रमाण किसी के पास नहीं है। अतः इस जन्म से पूर्व हम किसी योनि में इस संसार में अवश्य रहे हैं। हम जहां भी रहे हैं, वहां हमारे माता-पिता, भाई बन्धु आदि सम्बन्धी एवं मित्र भी रहे हैं और वहां से मृत्यु होने पर ही हम इस संसार में आये हैं। जैसे इस संसार में हम मनुष्यों एवं अन्य प्राणियों की मृत्यु होकर परजन्म के लिये प्रस्थान होते देखते हैं वैसे ही हम भी अपने-अपने पूर्वजन्मों में मृत्यु होने पर ही परमात्मा की व्यवस्था से इस जन्म में यहां आये हैं। यह क्रम चलता आ रहा है और प्रलय तक ऐसा ही चलता रहेगा। गीता में योगेश्वर कृष्ण जी ने एक महत्वपूर्ण बात यह भी कही है कि जिस प्रकार जन्म लेने वाले प्राणी की मृत्यु निश्चित है उसी प्रकार मृतक आत्मा का पुनर्जन्म भी निश्चित है। यह जन्म-मरण चक्र अनादि काल से चला आ रहा है और सदैव चलता रहेगा।
हमें इस जन्म में मृत्यु होने पर कहां जाना है, इसका उत्तर भी उपर्युक्त पंक्तियों में कुछ-कुछ आ गया है। मरने के बाद हम सबका पुनर्जन्म अवश्य होगा। हमारे जन्म का आधार हमारे इस जन्म के कर्म होंगे। योगदर्शन में ऋषि पतंजलि ने बताया है कि मरने के बाद हमारे शुभ व अशुभ कर्मों का जो संचय होता है वह प्रारब्ध कहलाता है। उस प्रारब्ध के आधार पर परमात्मा हमारी जाति अर्थात् जन्म तथा आयु सहित सुख-दुःखादि भोग निश्चित करते हैं। पूर्वजन्म के मृत्यु के समय प्रारब्ध कर्मों के अनुसार ही हमारा पुनर्जन्म होता है और हम सुख व दुःख भोगने सहित नये कर्मों को करके अपने भविष्य के पुनर्जन्म के लिये प्रारब्ध व भावी जन्म का आधार बनाते हैं। इस जन्म में मृत्यु होने पर आत्मा अपने सूक्ष्म शरीर के साथ शरीर का त्याग कर ईश्वर की प्रेरणा से पुनर्जन्म के लिए प्रस्थान करता है। शरीर छोड़ने की यह प्रक्रिया परमात्मा द्वारा की जाती है और वही इस आत्मा को इस ब्रह्माण्ड की किसी पृथिवी पर हमारे कर्मों के अनुकूल माता-पिता के यहां जन्म देता है। यह प्रक्रिया जटिल है जिसका ज्ञान हमें नहीं होता। इसका पूरा ज्ञान केवल परमात्मा को ही होता है और वही इसे सम्पन्न करते हैं। यदि हमें इस प्रक्रिया का पूरा ज्ञान होता तो मनुष्य का जीवन सुखों के स्थान पर दुःखों से पूरित होता। परमात्मा की महती कृपा है कि हमें उन अनेक अनावश्यक बातों का ज्ञान नहीं है जिससे हमें दुःख प्राप्त हो सकता है। उदाहरण के रूप में हम यह कह सकते हैं कि यदि पिछले जन्म में हम पशु थे, वहां हमें जो सुख व दुःख हुए, उन सभी बातों का ज्ञान होता तो उन्हें स्मरण करके ही हम दुःखी रहते और हमारा यह जीवन नरक बन जाता। यदि पूर्वजन्म में हम किसी धनाड्य परिवार में रहे होते और इस जन्म में हम निर्धन परिवार में जन्म लेते तो भी हम पूर्वजन्म को स्मरण करके दुःखी रहते। परमात्मा ने सभी जीवों पर यह कृपा की है कि किसी को अपने पूर्वजन्म, पूर्वजन्म के कर्मों तथा घटनाओं का ज्ञान नहीं है। इसके लिये भी हम सबको ईश्वर का धन्यवाद करना चाहिये।
हम पूर्वजन्म में किस योनि में थे जहां मृत्यु होने पर हम इस जीवन में आये हैं? इसका हमे स्मृति नहीं है। इस जीवन हमारी मृत्यु अवश्य होनी है। सभी उत्पन्न प्राणियों की मृत्यु व जन्म होना संसार का अटल नियम है। मृत्यु होने के बाद हमारी आत्मा हमारे हमारे कर्मानुसार इसी पृथिवी व इस ब्रह्माण्ड के किसी अन्य पृथिवी जैसे ग्रह पर जन्म लेगी और अपना जीवन व्यतीत करते हुए ज्ञान प्राप्त कर जीवन के उद्देश्य को जानकर जो कि दुःखों से पूर्ण मुक्ति है, वेदानुसार ईश्वरोपासना व सद्कर्मों को करते हुए पुनः पुनर्जन्म व मोक्ष की ओर अग्रसर होगी। हमें इस जन्म को सार्थक करने के लिये वेदाध्ययन करना चाहिये और वेदविहित कर्म करते हुए धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति करनी चाहिये। यही मनुष्य जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य है। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य