शिक्षक विद्यार्थी को जीवन निर्माण की एक नई दिशा प्रदान करने वाले होते हैं। कहते हैं कि बच्चे की प्रथम गुरु उसकी माता होती है, लेकिन विद्यालय में शिक्षक ही बच्चे के सर्वांगीण विकास में अपनी अहम भूमिका निभाते हैं। प्राचीन भारत में गुरुकुल शिक्षा पद्धति प्रचलित थी। बचपन में ही बच्चों को शिक्षा ग्रहण करने के लिए गुरुकुल में भेज देते थे, जहां पर वे न केवल किताबी ज्ञान ग्रहण करते थे, अपितु वहां उनके शारीरिक और मानसिक विकास पर भी पूरा ध्यान दिया जाता था।
गुरु की महिमा अपरम्पार
गुरु को हमारे समाज में सदैव सर्वोच्च स्थान दिया जाता है। तभी तो कबीर दास जी का यह दोहा आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना पहले था-
‘ गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।’
गुरु की महत्ता दर्शाने वाला एक और दोहा प्रचलित है-
‘गुरु कुम्हार शिष्य कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढे खोट।
अंतर हाथ सहार दे, बाहिर बाहे चोट।’
अर्थात अगर गुरु और भगवान दोनों सामने खड़े हों तो पहले गुरु को ही प्रणाम करना चाहिए, क्योंकि उन्हीं के मार्गदर्शन में उसे भगवान के दर्शन हुए। दूसरे दोहे का भावार्थ यह है कि गुरु उस कुम्हार की तरह होता है जो विद्यार्थी के चरित्र निर्माण में उसकी एक-एक भूल को निकालकर उसे अच्छा व्यक्ति बनाता है, ठीक उसी तरह जिस तरह कुम्हार घड़े के अंदर हाथ का सहारा देकर, बाहर से थपथपाकर उसे सही आकार देता है।
जन्म एवं शिक्षा
डाॅ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म 5 सितंबर 1888 को चेन्नई से लगभग 200 किलोमीटर दूर एक छोटे-से कस्बे तिरुताणी में हुआ था। इनके पिता का नाम वी.रामास्वामी और माता का नाम श्रीमती सीता झा था। इनके पिता एक गरीब ब्राह्मण थे और स्थानीय जमींदार के यहां एक साधारण व्यक्ति की तरह ही काम करते थे
फिर भी उन्होंने राधाकृष्णन को पढ़ने के लिए क्रिश्चियन मिशनरी संस्था लुथर्न मिशनरी स्कूल, तिरुपति में भेजा। इसके बाद उन्होंने वेल्लूर और मद्रास काॅलेज में शिक्षा प्राप्त की।
महान दार्शनिक और शिक्षाविद्
कहते हैं कि प्रतिभा अभावों में ही पलती है। राधाकृष्णन के साथ भी कुछ ऐसा ही था। वे एक महान दार्शनिक, एक महान स्वप्नदृष्टा, एक गहन मनीषी चिन्तक तो थे ही, साथ ही उच्चकोटि के लोकप्रिय शिक्षक, एक प्रख्यात शिक्षाविद, विश्व-विख्यात विचारक, तेलुगू-संस्कृत-अंग्रेज़ी आदि भाषाओं के जानकार भी थे। उनके उदात्त विचारों, ऊँचे सिद्धांतों एवं रचनात्मक धारणाओं ने उन अनेक पदों/उत्तरदायित्वों को अपरिमेय गरिमा तथा ऊर्जा प्रदान की, जिनका निर्वाह उन्होंने जीवन-पर्यन्त भारत राष्ट्र व सम्पूर्ण मानवता के प्रति पूर्ण समर्पण, प्रतिबद्धता एवं निष्ठा के साथ किया।
दर्शन शास्त्र में कला-निष्णात उपाधि प्राप्त करने हेतु प्रस्तुत किए गए उनके शोध पत्र ‘वेदान्त की नैतिकता एवं इसकी ठोस पूर्व कल्पनाएं’ के पुस्तक रूप में प्रकाशित होते ही एक दार्शनिक के रूप में इनकी विद्वत्ता एवं मौलिकता को सभी बुद्धिजीवियों ने सहज में ही स्वीकार कर लिया। उनके मतानुसार दर्शन शास्त्र जीवन को समझने और अर्थपूर्ण जीवन जीने का एक अनमोल साधन था।
गहन अध्येता
उन्होंने उपनिषदों, भगवत गीता, ब्रह्मसूत्र में दिए गये तत्त्व-ज्ञान तथा रामानुज, शंकराचार्य एवं मध्वाचार्य जैसे मनीषी दार्शनिकों द्वारा रचित सूक्ष्म मीमांसाओं व मौलिक स्थापनाओं का पूर्ण तन्मयता के साथ गहन अध्ययन किया। फिर उन्होंने बौद्ध धर्म व जैन धर्म की विचारधाराओं का भी अध्ययन किया; इसके अतिरिक्त उन्होंने पश्चिमी दुनिया के महान दार्शनिकों में प्लेटो, ब्रेडले, कांट आदि के दार्शनिक चिन्तन का, उनकी मौलिक धारणाओं एवं स्थापनाओं का गहन सूक्ष्मता से अध्ययन किया। वर्ष 1918 में वे मैसूर विश्व-विद्यालय में दर्शन शास्त्र के प्राध्यापक बने। वर्ष 1921 में वे कलकत्ता विश्व-विद्यालय आ गये, जहाँ ‘भारतीय दर्शन शास्त्र’ शीर्षक से प्रकाशित हुई उनकी पुस्तक ने विद्वानों में उनकी विद्वता की धूम मचा दी। उनकी इस पुस्तक को भारतीय दर्शनशास्र की मौलिक एवं विश्वसनीय पुस्तक माना जाता है।
वे वर्ष 1931 से 1936 तक आन्ध्र प्रदेश विश्व-विद्यालय के उप कुलाधिपति रहे; तदनन्तर वर्ष 1936 से लगातार सोलह वर्ष तक ऑक्सफोर्ड में उन्होंने ‘चेयर ऑफ स्पाल्डिंग प्रोफ़ेसर ऑफ ईस्टर्न रिलिजंस एंड एथिक्स’ का बखूबी निर्वाह किया।
राजनीतिक सफर की शुरुआत
राधाकृष्णन की योग्यता को देखते हुए उन्हें संविधान निर्मात्री सभा का सदस्य बनाया गया था। जब देश को स्वतंत्रता प्राप्त हुई तो पंडित नेहरू ने उन्हें सोवियत संघ में विशिष्ट राजदूत की भूमिका निभाने का आग्रह किया।
वर्ष 1946 में यूनेस्को में और फिर मास्को में उन्होंने भारत के राजदूत के रूप में उल्लेखनीय भूमिका निभाई। वे वर्ष 1952 से लेकर पूरे दस वर्ष तक भारत के उपराष्ट्रपति रहे। वर्ष 1954 में उन्हें भारत के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया। तदुपरांत वे वर्ष 1962 में भारत के राष्ट्रपति बने तथा वर्ष 1967 तक उन्होंने इस पद की गरिमा बढ़ाई। इस दौरान राष्ट्रपति भवन जन साधारण के लिए प्राय: खुला रहता था। वे इतने सहृदय थे कि उन्होंने अपने कार्यकाल में बड़ी विनम्रता के साथ अपनी मासिक तनख्वाह रु दस हज़ार में से मात्र पच्चीस सौ रूपये प्रति माह स्वीकार किये; शेष राशि वे प्रधानमंत्री राष्ट्रीय कोष में दान कर देते थे।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद आधुनिक भारत के निर्माण में प्रथम प्रधानमंत्री नेहरु की शान्ति, अहिंसा, सह-अस्तित्व, अंतर्राष्ट्रीय मैत्री व सद्भाव की नीति को दार्शनिक धरातल प्रदान करने में उनकी भूमिका श्लाघ्नीय रही। उनका दृढ़ मत था कि दार्शनिक का काम विगत से जुड़े रह कर भविष्य की ओर स्वप्निल निर्माण के संकेत देना है। वास्तव में भारतीय दर्शन शास्त्र को पाश्चात्य बुद्धिजीवि वर्ग में, धार्मिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्र में इसकी सामाजिक, नैतिक तथा वैचारिक प्रासंगिकता को स्थापित करने में इनका योगदान अमूल्य रहा है, उसे एक लेख में लिपिबद्ध करना सूर्य को दीपक दिखाने के समान ही होगा।
महान शिक्षक
वे एक महान शिक्षाविद तो थे ही, साथ ही महान शिक्षक भी थे। उनका कथन था- ‘देश के सर्वोत्तम बुद्धिजीवी अध्यापन के क्षेत्र से निरंतर जुड़े रहने चाहिए।’ वे मानते थे कि सही शिक्षा समाज में व्याप्त कई कुरीतियों, त्रुटियों, सामाजिक दोषों व रूढ़ियों के निराकरण का सर्वाधिक प्रभावशाली निदान है। उनकी नीतियों का प्रचार-प्रसार करने हेतु वर्ष 1962 से 5 सितंबर शिक्षक-दिवस के रूप में मनाया जाता है।
उन्होंने अपने जीवन के 40 वर्ष एक शिक्षक के रूप में बिताए। वे एक आदर्श शिक्षक थे, उनका मानना था कि सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए व्यक्ति का शिक्षित होना अति आवश्यक है। डॉ. राधाकृष्णन के पुत्र डॉ. एस गोपाल ने 1989 में उनकी जीवनी प्रकाशित की। इससे पहले उनके व्यक्तित्व के बारे में किसी को भी ज्यादा जानकारी नहीं थी। उन्होंने वर्ष 1952 में ‘लाइब्रेरी ऑफ लिविंग फिलासफर्स’ के नाम से अपने पिता के जीवन के बारे में एक शृंखला प्रस्तुत की।
इस प्रकार भारत के महान सपूत डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्मदिवस उनकी स्मृति में देश भर में आयोजित किया जाता है।जो स्वयं एक महान दार्शनिक, शिक्षक और चिन्तक थे तथा जिनका योगदान भारतीय शिक्षा प्रणाली को समय की चुनौतियों के अनुरूप नई दिशा प्रदान करने के लिए सदैव याद किया जाएगा। 17 अप्रैल 1975 को इस महान मनीषी का निधन भारत के लिए अपूरणीय क्षति रहा।
– सरिता सुराणा