ग़ज़ल – क्यों माई मुझे अब बुलाती नहीं है
क्यों माई मुझे अब बुलाती नहीं है
क्या तुझको मेरी याद आती नहीं है
बड़ी बेरहम है शहर की ये दुनिया
जो भटके तो रस्ता दिखाती नहीं है
हैं ऊँची दीवारें और छोटे से कमरे
चिड़िया भी आकर जगाती नहीं है
कई रोज से पीला सूरज ना देखा
चाँदनी भी अब मुझको भाती नहीं है
ये व्यंजन भी सारे फीके से लगते
उन हाथों की तेरे चपाती नहीं है
वो गाँव की गलियां वो झूले वो बगिया
वो यादें जहन से क्यों जाती नहीं हैं
ये लल्ला तेरा देख कब से ना सोया
क्यों माई मुझे अब सुलाती नहीं है
बोझिल सी आँखें मेरी हो चली हैं
ये अश्कों को मेरे छुपाती नहीं हैं
— अमित ‘मौन’