कविता

नग्मा

ये जो नग्मा दिल मेरा  गुनगुना रहा है

किसी मीत का गाया हुआ सा लगता है
सबकुछ खोकर आये हैं बेदर्द जमाने में
फिर भी दिल कुछ पाया हुआ सा लगता है
जिस्म ओ जां अपनी जगह सलामत है
मगर ये दिल पराया हुआ सा लगता है
रात की नींदों का जागरण शुरू हो गया है
ख्वाबों में दर्द मिलाया हुआ सा लगता है
एक तुझे पाने के लिए ताउम्र हम भटका किए
और तेरे दिल में गैर समाया हुआ सा लगता है
आँखे सुर्ख बोझल पलकें भारी तन टूटा मन
कोई दर्द पुराना दिल में उभर आया सा लगता है
पलकें झुकीं है तुम्हारी और जुबां खामोश है
तुम्हारे मन को कोई और भाया सा लगता है
तुम्हारी झुकी नजरें बेवफाई के किस्से कहती हैं
दिल को ये किस्सा पहले भी सुनाया सा लगता है
कहाँ सुनता है चाँद चकोरी का प्रेम निमंत्रण
वो तो अपने उजियारे से भरमाया सा लगता है
तू आजकल सुनता नहीं हमारे दिल की बातें
तुझ पर जादू कोई किया कराया सा लगता है
जिंदा हैं मगर जीने के अहसास के परे जा रहे हैं
अब तो साँसें लेना भी जिस्म का किराया सा लगता है
आरती त्रिपाठी 

आरती त्रिपाठी

जिला सीधी मध्यप्रदेश