हमारे लिए चाँद पर जाना जरूरी क्यों था?
जिस दिन चंद्रयान-2 ने अन्तरिक्ष के लिए उड़ान भरी थी इसके साथ ही भारत के 130 करोड़ लोगों की आकांक्षाएं भी अंतरिक्ष में चली गईं, हमारी निगाहें चाँद पर टिकी और सिर गर्व से उठा। बस कामना यही थी कि विक्रम, प्रज्ञान को सफलतापूर्वक चन्द्रमा की सतह पर आहिस्ता से उतार दे, ताकि हमें चन्द्रमा की सतह के फोटो मिलना प्रारंभ हो जाएं। किन्तु किसी छोटी से तकनीकी चूक से ऐसा हो नहीं पाया और एक ही पल में सारा देश कुछ पलों को मायूस गया।
प्रधानमंत्री मोदी ने देश के वैज्ञानिकों से लेकर समस्त देश को आश्वस्त किया कि हर मुश्किल, हर संघर्ष, हर कठिनाई, हमें कुछ नया सिखाकर जाती है, कुछ नए आविष्कार, नई टेक्नोलॉजी के लिए प्रेरित करती है और इसी से हमारी आगे की सफलता तय होती हैं। विज्ञान में विफलता नहीं होती, केवल प्रयोग और प्रयास होते हैं हमारा सम्पर्क टुटा है होसला नहीं। उनके इस भाषण ने मानों इसरो के वैज्ञानिकों को उत्साह दिया तो बाकी देश के नागरिकों की उम्मीदों पुन: जिन्दा कर दिया।
अब सवाल ये है इस पूरे घटनाक्रम से आखिर एक आम भारतीय जो दो वक्त की रोटी के जुगाड़ में लगा है, कोई रिक्शा चला है कोई खेत में काम कर रहा हैं वो लोग इस मिशन चंद्रयान से खुश और दुखी क्यों हुए उन्हें इससे क्या मिलने वाला था?
असल में हजारों सालों की गुलामी और गरीबी की मकड़जाल में फंसे रहे जिस देश की संपदा मुगल और ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने लूटी हो, जिस देश में आजादी के बाद राजनितिक उठापटक रही हो, एक आम आदमी, जिसने विज्ञान कभी पढ़ा ही न हो, रॉकेट, उपग्रह, ऑर्बिटर, लैंडर और रोवर जैसे शब्दों से कभी उसका वास्ता न पड़ा हो, उसके लिए इतने बड़े स्तर का यह मिशन किसी परीकथा से कम नहीं था। अपने देश का नाम अन्तरिक्ष में लिखे जाने पर वो स्वयं में गर्व महसूस कर रहा है।
किन्तु इस मौके पर कई लोगों ने सवाल भी उठाये कि इतना पैसा चाँद पर जाने के लिए क्यों बहाया गया? इससे क्या हासिल होगा? ऐसा नहीं है ये सवाल आज खड़े हुए जब अपने शुरूआती दिनों में विक्रम साराभाई और इसरो से जुड़े सभी वैज्ञानिकों ने अन्तरिक्ष कार्यक्रम की नीव रखी तब भी उन्हें इस सवालों और तीखी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था। विक्रम सारभाई उस समय के राजनीतिक नेतृत्व को यह समझा पाए थे कि हमें मनुष्य और समाज की असल समस्याओं के हल के लिए आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल में किसी से पीछे नहीं रहना चाहिए।
इसरों की इसी नीव का नतीजा है कि आज भारत के पास अपने उपग्रह है जो समय से पहले चेतावनी देकर लाखों जिंदगियों को बचाने में सक्षम है। ऐसे उपग्रह है जिनसे फसलों और वनों के प्रबंधन और राष्ट्रीय संचार प्रणाली को मजबूत करने में मदद मिल रही है। यदि उस समय यह इसरो की नीव न रखी होती तो आज अधिकतर देशों की तरह हम भी अपनी सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा के लिए विकसित देशों की कृपा पर निर्भर रहते।
इसका सबसे बड़ा उदाहरण कारगिल वार है चूँकि भारत 1973 से ही अमेरिकी जीपीएस सिस्टम पर निर्भर रहा था। जब साल 1999 में कारगिल वॉर के वक्त पाकिस्तानी सैनिकों ने घुसपैठ की तब भारत ने उनकी लोकेशन और पोजिशन जानने के लिए अमेरिका से मदद मांगी। किन्तु अमेरिका ने पोजिशन बताने से मना कर दिया था। तब हमारी सेना को इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी यदि उस समय अमेरिका हमारी यह मदद कर देता तो हम अपने सैनिकों की जान गंवाए बिना इस युद्ध को जीत जाते। इसके बाद इसरो ने तय किया कि वह अपना रीजनल पोजिशनिंग सिस्टम बनायेंगे, उसनें इस कामयाबी को हासिल किया और साथ ही अमेरिका और रूस के बाद भारत अब तीसरा देश बन गया है जिसके पास अपना नेविगेशन सिस्टम है।
इसका लाभ न सिर्फ हमारी सेना को हुआ बल्कि एक आम भारतीय तक इसका लाभ पहुंचा आज इस सिस्टम का इस्तेमाल नौसेना के नेविगेशन, आपदा प्रबंधन, गाड़ियों की ट्रैकिंग, मोबाइल फोन के सिग्नल से लेकर मैप तक हमारा नेविगेशन काम कर रहा है। एक समय था जब दूरदर्शन पर समाचार या कोई कार्यक्रम देखने के लिए परिवार का एक व्यक्ति तो बार छत पर टीवी एंटीना सही करने में लगा रहता था। कई बार चित्र आ भी जाते थे तो कई बार परेशान होकर टीवी बंद करना पड़ता था। पर आज देश में एक साथ 1000 से अधिक टीवी चैनल चल रहे है, लोग चलते-चलते मोबाइल में फिल्म समाचार और मैच देख रहे है इन सबमें इस इसरों और देश के वैज्ञानिकों का योगदान नहीं नकारा जा सकता।
इसके अलावा अभी तक देश के समुन्द्र तटीय इलाकों में चक्रवात आते थे और हजारों लोग मारे जाते थे। किन्तु आज चक्रवात को लेकर उपग्रह से मिले आंकड़ों के आधार पर तटीय इलाकों से लाखों लोगों को सुरक्षित जगहों पर पहुंचाकर इसरों के कारण ही इन लोगों की जान बचाई जा रही है। मगर हमें भूलना नहीं चाहिए कि 1960 के दशक में अगर वो खिलौने जैसे रॉकेट न बनाए गए होते तो भारत चांद और मंगल पर अभियान भेजने में सक्षम नहीं हुआ होता।
आज हमें चंद्रयान 2 की चंद्रमा की सतह पर उतरने की विफलता से मायूस नहीं होना चाहिए हमारे वैज्ञानिकों ने कुछ समय पहले मिशन मंगल की सफलता से दुनिया को चौकाया था ये ही वैज्ञानिक थे जिन्होंने एक साथ 104 उपग्रह अन्तरिक्ष में भेजकर अनूठी इबारत लिखी थी.
इसलिए आज हमें अपने वैज्ञानिकों का उत्साह वर्धन करना चाहिए। ऐसी विफलता तो होती रहती है रूस अमेरिका चीन भी अनेकों बार विफल रहे। अभी तक चंद्रमा की सतह पर उतरने की कुल 38 कोशिशें की गई हैं। इनमें से महज 52 फीसदी प्रयास ही सफल रहे हैं। चंद्रमा पर दुनिया के केवल छह देशों या एजेंसियों ने अपने यान भेजे हैं लेकिन कामयाबी केवल तीन को मिल पाई है। सोवियत संघ ने 1959 से 1976 के बीच 13 कोशिशें करने के बाद सफलता हासिल की थी। काफी कोशिशों के बाद अमेरिका सफल हुआ था। इजराइल ने इस साल फरवरी को अपना मून मिशन लॉन्ची किया था लेकिन उसे भी मायूसी ही हाथ लगी थी। हमें अपने वैज्ञानिकों पर गर्व है कि उन्होंने इस मिशन में 95 प्रतिशत सफलता पाई। अब हमें प्रचंड विश्वास है कि उन्होंने आखिरी समय में जो चुनौतियां देखीं उनका समाधान तलाशेंगे। जो साहस और कड़ी मेहनत उन्होंने दिखाई है वह ऐतिहासिक है यह भी किसी महान उपलब्धि से कम नहीं है। हम जल्दी ही पुन: कामयाब होंगे।