रिश्तों का पोस्टमार्टम भाग-2
रिश्तों का पोस्टमार्टम भाग-2
अब आगे पढिये……….
“नहीं।” मैंने उत्सुकता के साथ उत्तर दिया।
“तो फिर चलो तुम्हें घाट चैरासी के दर्शन कराते हैं और रात वहीं रूकने का पूरा जुगाड।” बड़े अनोखे अन्दाज़ में निशा ने कहा
“जुगाड़” भारत में सबसे अधिक बोले जाने वाले शब्दों में से एक है, हमारे यहां तो शादी, बारात, पढाई, नौकरी से लेकर सरकार बनाने तक जुगाड़ का बोलबाला है। सच में अगर जुगाड़ न हो तो देश की आधी आबादी तो भूख से ही मर जायें।” मैं अपने आप को समझा ही रहा था कि अचानक निशा ने मेरे कन्धे पर हाथ रखकर पूंछा
“जिन्दा हो या शहीद हो गये भाई?”
“ये क्या? भाई! हालाकि मेरे निशा का कोई रिश्ता नहीं था पर भाई? यार इतने खराब दिन आ गये क्या एक सुन्दर सी लड़की भाई बोल रही है। सच कहता हूँ आधे से ज्यादा कुंवारे लड़कों के डिप्रेशन में रहने का सबसे बड़ा कारण यही हैं। मन तो किया 180 साल की जेल सुना दूँ पर…., ख़ैर, अभी मैंने अपनी अकड़ जेब में रख ली क्योंकि अकड़ दिखाने के लिये जेब गर्म और भारी होनी चाहिये और मेरा तो सबकुछ फट चुका था। अकड़ भी और जेब भी…………
बीएचयू चैराहे से पैदल की अस्सी घाट के लिये निकल पड़े। वो आगे आगे और मैं पीछे पीछे.लड़की तो वो थी और डर मैं रहा था।
“यार रात बहुत बड़ी होती है कैसे कटेगी वो भी खुले आसमान के नीच? लग गये बेटा, आज तो।” मै अपने आप को समझा रहा था। समझा क्या खुद को धोखा देने की भरपूर कोशिश कर रहा था।
थोड़ी ही देर में हम सुबह बनारस के मंच पर पहुँच गये। मैंने देखा कि लगभग सभी लोग वहां से वापस जा रहे थे और हम घाट की ओर। वहां 4-6 संगमरमर की चैकियां पड़ी थी, जिन्हें देखकर मैं खुश हुआ कि हो सकता है यही होगा घाट चैरासी जिस पर सोने की पूरी व्यवस्था है। इधर-उधर देखा तो इक्का दुक्का लोग नज़र आये वो भी लेमन टी और भेलपूरी वाले ही थे जो अपना अपना सामान समेटने में लगे थे।
यही घाट चैरासी है क्या? मैंने खुश होते हुए पूंछा
“नहीं।” उत्तर मिला। हम आगे बढे और सीढियों पर बैठ गये। थोड़ी देर में निशा ने कहा
“खाने के लिये कुछ है क्या तुम्हारे पास?” मैंने ना में सर हिलाया।
“अबे चोचू ही हो।” निशा ने कहा।
“ये बला कौन सी है? हो सकता है अकेली फस गयी है रात में तो चाहती है उसकी सुरक्षा के लिये कोई साथ रहे।” ऐसा सोंचते हुये मैं अपनी बाहें ऊपर चढाने लगा।
आज के दिन ऐसे नये-नये शब्द सुन रहा था जो ऑक्सफोर्ड डिक्सनरी में भी न मिलें। निशा ने अपना बैग खोला और एक मिठाई का डिब्बा निकाला जो सामान्यतया स्टेशन में लंच या डिनर को पार्सल देने में के लिये होता है। उसने मेरी तरफ बढाते हुये कहा
“इतना है थोड़ा-थोड़ा खा लेते हैं।” उसने डिब्बे से एक पूड़ी निकाली और पहला प्रश्न पूंछा……“तो नाम क्या है, बताओगे?”
“सौरभ।” मैंने भी पूड़ी का एक टुकड़ा काटते हुये उत्तर दिया
“तो यहां कैस?” उसका अगला प्रश्न। मुझे लगा अन्जान जगह है, एक अजनबी साथ में तो लड़की कम से कम अपनी सुरक्षा के लिये इस तरह के सवाल तो पूंछेगी ही।” खुद से मैंने कहा
“बस बीएचयू में पोलिटिकल साइंस के एडमिशन के लिए आया था।”
“सिर्फ जानना चाहते हो या करना भी?” उसका अगला प्रश्न……
“नहीं करना भी है, इसीलिये तो पता करने आया था।” अब तक मैं अपनी परेशानी को लगभग भूल ही गया था।
“और आप यहां? मैनें पूंछा
“बस ऐसे ही।” उसने अपने बैग में हाथ फेरते हुये कहा। बड़-बड़ करने वाली और पुरूषों की तरह एटिट्यूड रखने वाली लड़की का पहला उत्तर था। जिसे सुनकर ऐसा लगा इस बार उसने बहुत कुछ सोंचकर उत्तर दिया है। हांलाकि उत्तर में ऐसा कुछ भी नहीं था जिससे मुझे अचम्भित होना हा। मुझे लगा इतनी बातें जो उसने अबतक की हैं वो अपनी परेशानी को छिपाने के लिये कही होंगी जो ज्यादातर लड़कियां करती हैं।
हमारा डिनर हो चुका था जो सिर्फ मानसिक रूप से ये व्यक्त करने के लिये काफ़ी था कि हमने कुछ खाया है। फिर लगभग गर्म हो चुके पानी की बोतल से पानी पिया।
“लो सौरभ हो गया डिनर, अब कुछ टहल लिया जाये। कहते हैं कि खाना खाने के बाद टहलना चाहिये।” निशा ने कहा।
“हां हां क्यों नहीं।” मैंने उत्तर दिया। मैं बहुत थक चुका था पर जिसने मेरी इतनी मदद की मैं किसी भी प्रकार से उसे नाराज नहीं करना चाहता था। हम आगे बढे। गंगा के किनारे की चमकीली रेंत पर चांदनी ऐसी लग रही थी जैसेे आसमान के आधे तारे हमारे पैरों के नीचे हैं और आधे ऊपर। हम लोग आगे बढे
“तो सौरभ! यही नाम बताया ना तुमने अपना?”
“जी।” मैंने कहा
“कौन-कौन है तुम्हारे घर में? निशा ने फिर पूंछा
“मम्मी, पापा और दो छोटे भाई।” मैंने उत्तर दिया। चांदनी रात, ठंडी ठंडी हवा, गंगा के शांत पानी पर हल्की हल्की लहरें जैसे अपना नाम लिख रहीं हों। हम ऐसे ही कुछ देर टहलते रहे। निशा के हाथ में एक खुबसूरत सी डायरी थी जो वो बार बार हाथों में घुमा रही थी। ऐसा तभी होता है जब कोई बहुत गहरी सोंच में डूबा हो पर मुझे हिम्मत न हुयी कि उससे कुछ पूछ सकूँ। कभी-कभी ऐसा लग रहा था कि वो डायरी को गंगा में फेंक देना चाहती थी पर ऐसा क्यों करेगी? इसको भी नहीं समझ पा रहा था।
मैनें कहा “अब कहीं रात काटने की जगह भी तलाश लें?”
“अरे हां।” उसने कहा। हमने अपना बैग उठाया और सुबह बनारस के मंच के पास ही अस्सी घाट पर आये जहां शाम की आरती होती ह। उसने कहा “लो आ गये चैरासी घाट।”
मैंने कहा ये तो “अस्सी घाट है।”
वो जोर से हंसी जिसे सुनने वाला मेरे अलावा कोई न था। जो कुछ लोग थे वो भी सोने की तैयारी में थे।
“चलो चैरासी घाट ले चलूँ।” कहकर उसने कहा गिनो
“इक्क्यासी, बयासी, तिरयासी और चैरासी।” चार कदम चली।
“लो यही है घाट चैरासी।” बोलकर वो सीढीयों के पास अपना चादर बिछाने लगी। अपना बैग सिरहाने रखकर बोली “बिस्तर लगा लो।” मुझे जोर से हंसी आ गयी…….क्रमशः
(कविता सिंह-सौरभ दीक्षित मानस)