जीवन के वो चार दिना
जीवन के वो चार दिना
बीत गये जो प्यार बिना
नफरत की आग जलती थी
ख्वाहिशें भी खूब मचलती थी
सपने जागते रहते थे सारी रैन
जैसे उनींदी नींदों के बिना
अपने भी पराये से लगते थे
रूठे अपने साये से लगते थे
हम तड़प के रह जाते थे
जैसे कभी अपनों के बिना
सांसें भी सुलगती रहती थी
आँखे आग उगलती रहती थी
बडा़ अजीब मंजर था जिंदगी
चलती थी जैसे सांसों के बिना
जीवन के वो चार दिना
बीत गये जो प्यार बीना
जब गुरबत साथ निभाती थी
लोगों को घिन हमसें आती थी
सब अपने पराये हो जाते थे
जब हम मिलते थे दौलत के बिना
गरीबी भी क्या खूब रंग लाती थी
लोगों की पहचान कराती थी
दौलत की सब मोह माया है
दौलत नाच नचाती धिन ताक धिना
जीवन के वो चार दिना
बीत गये जो प्यार बिना
— आरती त्रिपाठी