जैसे बारिश से बेनूर कोई ज़मीन है
वो इस कदर बरसों से मुतमइन* है
जैसे बारिश से बेनूर कोई ज़मीन है
साँसें आती हैं, दिल भी धड़कता है
सीने में आग दबाए जैसे मशीन है
आँखों में आखिरी सफर दिखता है
पसीने से तरबतर उसकी ज़बीन* है
अपने बदन का खुद किरायेदार है
खुदा ही बताए वो कैसा मकीन* है
ज़िंदगी मौत माँगे है उसकी आहों में
उसका मुआमला कितना संगीन है
— सलिल सरोज
*मुतमइन-शांत
*ज़बीन-माथा
मकीन-मकीन में रहने वाला