हम सब का वरणीय एक सच्चिदानन्दस्वरूप परमेश्वर है
ओ३म्
हमारे पूर्वजन्म के शुभ कर्मों के आधार पर हमें सभी प्राणियों में श्रेष्ठ मनुष्य योनि में जन्म मिला है। जीवन का कुछ व अधिकांश भाग हम व्यतीत कर चुके हैं। कुछ भाग शेष है जिसके बाद हमारी मृत्यु का होना अवश्यम्भावी है और यह निर्विवाद सत्य है। हम जीवन में शरीर के पालन हेतु आहार, विहार तथा व्यायाम आदि पर ध्यान देते हैं। कुछ लोग जिह्वा के स्वाद में पड़कर आहार के नियमों का उल्लंघन भी करते हैं। कुछ लोग धन कमाने को ही सबसे अधिक महत्व देते हैं। उनके पास धन कमाने के अतिरिक्त सामाजिक कार्यों व देश व धर्म की उन्नति सहित अपनी आत्मिक उन्नति के लिये भी समय नहीं होता। धन इसलिये कमाते हैं कि हम अपने व अपने प्रिय परिवारजनों के लिये सुख व सुविधाओं को एकत्रित कर सकें। राजनीति से जुड़े कुछ प्रमुख लोगों के भ्रष्टाचार के प्रकरण सामने आये हैं जिन पर कार्यवाही हो रही है। इससे पता लगता है कि एक-एक व्यक्ति ने हजारों करोड़ के घोटाले किये हैं। यह तो कुछ ऐसे घोटाले हैं जिनका ज्ञान हमारी जांच एजेंसियों को हुआ है। इन घोटालों के अतिरिक्त भी जीवन भर उन्होंने इसी प्रकार का चरित्र हनन कर आर्थिक अपराध किये होंगे, इसका अनुमान बुद्धिजीवी व विवेकी लोग आसानी से लगा सकते हैं। सभी राजनीतिक तथा सरकार में ऊंचे पदों पर आसीन लोगों की यदि सम्पत्तियों को देखे तो प्रायः अधिकांश के पास आय से अधिक सम्पत्ति देखी जाती है। अनेक साधारण सरकारी कर्मचारियों की भी ऐसी स्थिति देखी जाती है। व्यापार में मिलावट व कर की हेराफेरी करने वाले भी फलते फूलते दीखते हैं। पूर्व की सरकारों में ऐसे लोगों के प्रति कार्यवाही की इच्छा शक्ति की कमी देखी जाती थी। वर्तमान की सरकार इस ओर कुछ सक्रिय व कठोर दिखाई देती है।
इस प्रकार लोग अपना सारा जीवन उचित व अनुचित तरीकों से धन सम्पत्ति की प्राप्ति में ही लगा देते हैं। ऐसे कार्य करने व इनका रक्षण करने वाले लोगों को हम नास्तिक कह सकते हैं। इन्हें ईश्वर व उसके न्याय का ज्ञान ही नहीं है। यदि हमें पता हो कि हम जो कार्य कर रहे हैं इसका समुचित दण्ड हमें अवश्यमेव अर्थात् अवश्य ही मिलेगा तो शायद हम उस अपराध व दुष्कर्म को न करें। अपराध उस समाज में अधिक होते हैं जहां दण्ड व्यवस्था निर्बल व कमजोर होती है। न्याय के लिये प्रायः कहा जाता है कि न्याय यदि समय सीमा के भीतर न मिले तो वह न्याय नहीं होता। हमारे देश में अनेक कारणों से न्याय में विलम्ब होता है। इससे लोग अपराध करने से डरते नहीं परन्तु फिर भी बहुत से लोग इसकी पकड़ में आ ही जाते हैं और वह देश और समस्त विश्व के सामने अपने दुराचार व दुष्कर्म के द्वारा कुख्यात हो ही जाते हैं। अतः मनुष्य जीवन में हमें कुछ भी अच्छा या बुरा कर्म करने से पूर्व संसार को भली प्रकार से जानना आवश्यक है। हमें यह ज्ञात होना चाहिये कि हम जो कर्म कर रहे हैं उसका परिणाम सांसारिक, राजकीय व सामाजिक व्यवस्था के साथ ईश्वरीय व्यवस्था से क्या-क्या होना है व हो सकता है?
हमें ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिये जिससे हमें वर्तमान में तो सुख मिलता है परन्तु दीर्घकाल में उसके कारण हमारा चरित्र हनन सिद्ध हो जाये और हम समाज व देश में बदनाम हो जायें। हमारे देश के ऋषि मुनियों ने जन्म व कर्म की गहन विवेचन किया है और इस पर प्रचुर साहित्य भी उपलब्ध है। दर्शनकार बताते हैं हमारे जन्म का कारण हमारे पूर्वजन्म के शुभ व अशुभ कर्म होते हैं। ईश्वर ने इस सृष्टि को भी जीवों के शुभ व अशुभ कर्मों के फल प्रदान करने के लिये बनाया है और इसी हेतु वह इसका पालन व संचालन कर रहा है। अतः संसार के सभी प्राणियों की स्थिति का अध्ययन कर हमें यह निश्चय करना है कि हम परजन्म में किस योनि में जन्म धारण व ग्रहण करना चाहते हैं। यदि हम चाहते हैं कि हमें मनुष्य जन्म मिले तो हमें अपने अधिकांश व आधें से अधिक सद्कर्म वा शुभ करने होंगे। पाप व अशुभ कर्मों की संख्या जितनी कम होगी और शुभ कर्म अधिक होंगे उस संख्या के अनुरूप ही हमें मनुष्य जन्म और उसमें धार्मिक, विद्वान माता-पिता व सुख आदि की स्थिति व सामग्री प्राप्त होगी। परमात्मा ने हमें सत्यासत्य व सद्कर्मों के ज्ञान के लिए विवेक करने वाली बुद्धि दी है। विद्वानों ने हमारी सहायता व मार्गदर्शन के लिये सत्साहित्य रचा है और अनेक विद्वान सत्परामर्श के लिये अपनी सेवायें देने के लिये हमें आर्यसमाज में उपलब्ध हैं। यदि हम मत-मतान्तरों के अविद्वान लोगों से परामर्श व उनके अविद्यायुक्त ग्रन्थ पढ़ेंगे तो हमें उचित व हितकारी मार्गदर्शन नहीं मिलेगा। इसके लिये हमें वेद के ज्ञानी विद्वानों की शरण व पूर्व विद्वानों दर्शनकार, उपनिषद्कार, स्मृतिकार तथा ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का अध्ययन करना होगा। ऐसा करने से हम सत्य व असत्य अर्थात् शुभ व अशुभ कर्मों का ज्ञान प्राप्त कर इनसे होने वाली हानि-लाभों को भी भली प्रकार से जान सकेंगे।
वेद और ऋषियों द्वारा रचित समस्त वैदिक साहित्य का अध्ययन करने पर यह निश्चित होता है कि परमात्मा हमारे प्रत्येक कर्म का अपनी सर्वव्यापकता से साक्षी होता है। परमात्मा का विधान है कि वह प्रत्येक जीव को उसके शुभ व अशुभ सभी कर्मों का सुख व दुःख रूपी भोग अवश्यमेव व जन्म-जन्मान्तर में कराता है। हम संसार में जो पशु और अन्य मनुष्येतर योनियां देखते हैं, उन प्राणियों व जीवात्माओं को ईश्वर ने उनके पूर्व मनुष्य जन्म के कर्मों के आधार पर जन्म दिया है। मनुष्य योनि में कुछ लोग धार्मिक, विद्वान व धनी माता-पिता के यहां जन्म लेते हैं और कुछ निर्धन व अज्ञानी माता-पिता के यहां। यह सब पूर्व मनुष्य जन्म के कर्मों के कारण से परमात्मा ने किया है। महर्षि पतंजलि ने कहा है कि हमें अपने प्रारब्ध के अनुसार ही इस जन्म में मनुष्य, पशु, पक्षी आदि जाति, आयु व सुख-दुःख प्राप्त होते हैं। इस बात को साधारण मनुष्य आसानी से विश्वास नहीं करेगा इसका कारण उसका अज्ञान व दूषित संस्कार हैं। वह जब इन सब विषयों का मन को शुद्ध व पवित्र बनाकर अध्ययन करेगा तो उसे कर्म फल सिद्धान्त की एक-एक बात समझ में आ जायेगी और वह उस पर विश्वास भी करेगा।
हमारे पूर्वज वैदिक विद्वान व दर्शनकार अपना जीवन अध्ययन-अध्यापन सहित वेद एवं अन्य विद्वानों के साहित्य के अध्ययन आदि कार्यों में ही लगाते थे। वह सभी पढ़ी व सुनी बातों का विवेचन कर मन्थन करते थे और सत्य को स्वीकार तथा असत्य का त्याग करते थे। सृष्टि के आरम्भ से महाभारत युद्ध तक और उसके बाद भी अनेक वेदविज्ञ लोगों में यह परम्परायें विद्यमान रहीं हैं। अतः सभी मनुष्यों का कर्तव्य है कि वह सृष्टि में कार्यरत सत्य नियमों व विधानों को जानने के लिये वैदिक विद्वानों व अन्य विद्वानों की भी शरण में जायें, ऋषियों व विद्वानों के साहित्य का अध्ययन करें और स्वयं उन सब विचारों व सिद्धान्तों का विश्लेषण व मनन-चिन्तन कर सत्य का ग्रहण व असत्य का त्याग करें। इससे वह अपने जीवन के लिसे कल्याण करने वाले मार्ग को निश्चित कर सकते हैं जिस पर चल कर उन्हें इस जन्म तथा परजन्म में दुःखों व चिन्ताओं से ग्रस्त न होना पड़े। जीवों को दुःखों व अवनति से बचाने के लिये ही परमात्मा ने वेदों का ज्ञान दिया है जिसका प्रचार करने सहित उनकी सरल व्याख्याओं को हमारे ऋषियों ने अपने मौखिक उपदेश व ग्रन्थों के लेखन द्वारा हम सब मनुष्यों का मार्गदर्शन किया है। महर्षि दयानन्द ने भी पूर्व ऋषियों का अनुसरण कर उसी कार्य को किया जिसके परिणामस्वरूप आज देश में सभी विषयों का सत्साहित्य उपलब्ध होने के साथ सब मनुष्यों का मार्गदर्शन करने के लिये बड़ी संख्या में विद्वान सुलभ हैं।
संसार में हमारा वरणीय केवल एक सच्चिदानन्दस्वरूप परमेश्वर ही है। परमेश्वर की सत्ता है इसका प्रमाण उसका बनाया हुआ यह संसार है। ईश्वर ही इस संसार का रचयिता, संचालनकर्ता, पालनकर्ता तथा प्रलयकर्ता है। वही सभी जीवात्माओं को जन्म व मृत्यु प्रदान करने सहित उनके जन्म-जन्मान्तरों के कर्मानुसार उन्हें सुख व दुःख देने वाला है। इसका अन्य कोई उत्तर न वैज्ञानिकों के पास है और न किसी मत-मतान्तर के आचार्य व अनुयायी के पास। ऋषि दयानन्द वेदों के विद्वान एवं ईश्वर का साक्षात्कार किये हुए द्रष्टा व योगी थे। उन्होंने वेद की सत्यता की पुष्टि की है। इसके अनेक प्रमाण भी उन्होंने अपने ग्रन्थों में दिये है। सत्यार्थप्रकाश उनकी सबसे उत्तम रचना है। हिन्दी में होने के कारण आम व्यक्ति भी इसे पढ़ व समझ सकता है। उन्होंने आर्यसमाज के दूसरे नियम में ईश्वर के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है। उन्होंने ईश्वर को सभी जीवात्माओं के कर्मों का साक्षी और उनका फलदाता भी बताया है। ईश्वर सर्वव्यापक, अनादि, नित्य और सृष्टिकर्ता होने से सर्वज्ञ भी है। सर्वज्ञता उसका स्वाभाविक गुण है और वह उसमें अनादिकाल से है ओर अनन्तकाल तक रहेगा।
हम जीवात्मा अल्पज्ञ, अल्पशक्ति, अल्प बुद्धि, ज्ञान व कर्म की अल्पशक्ति से युक्त तथा अनादि, अनुत्पन्न, एकदेशी, ससीम, जन्म-मरण के बन्धनों में फंसे हुए एक चेतन सत्ता हैं। वेदानुकूल आचरण से जीवात्मा का मोक्ष होता है। मोक्ष प्राप्ति ही हमारी जीवात्मा का अन्तिम लक्ष्य है। मोक्ष में जीव ईश्वर के सान्निध्य में पूर्ण आनन्द की अवस्था में रहता है। मोक्ष के बाद 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्ष बाद इसका पुनर्जन्म होता है। यदि यह ईश्वर को जानकर वेदानुकूल सद्कर्म, ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र देवयज्ञ, माता-पिता व आचार्यों की सेवा सहित परोपकार एवं दान आदि कर्मों को नहीं करेगा तो यह दुःखों एवं जन्म-मरण के बन्धन में फंसा रहेगा। ईश्वर जीव को हर क्षण सत्प्रेरणा करता रहता है। वही इसको दुःखों से छुड़ाता एवं मोक्ष प्रदान करता है। अतः एक सच्चिदानन्दस्वरूप ईश्वर ही इसका वरणीय है। यदि यह ईश्वर का वरण कर वेदाध्ययन, सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन व सद्कर्मो को करता है तो इसका कल्याण होता है। जीवात्मा के सम्मुख ईश्वर को अपना वरणीय परमेश्वर मानने के अतिरिक्त कोई विकल्प ही नहीं है। यदि यह काम, क्रोध और लोभ में फंस कर अवैध तरीकों से धन संचय एवं सुख-सुविधाओं के फेर में फंस जाता है तो यह अपना ही अहित करता है और जन्म-जन्मान्तरों में दुःख भोगता है। इसे वेद ज्ञान से लाभ उठाने सहित सभी प्राचीन ऋषियों, ऋषि दयानन्द, राम, कृष्ण, चाणक्य, श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, सरदार पटेल, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, वीर सावरकर, लाल बहादुर शास्त्री और नरेन्द्र मोदी जी के आदर्श व अविवादित गुणों को ग्रहण करना चाहिये। ऐसा करके ही यह कल्याण को प्राप्त हो सकता है। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य