तेरे नाम से शुरू तेरे नाम पर खतम…
“क्या देख रहे हो! हाँ जानती हूँ थोड़ी मोटी हो गई हूँ पर उम्र भी तो देखो पूरी पैंतालीस साल की हूँ।आप भी ना!आँखों से ही सारी बात समझा देते हो।” कहकर स्मृति वार्डरोब से कपड़े निकालने लगी।एक साड़ी हाथ में लेकर शेखर की ओर मुडी और बोली, “देखो! यह कैसी है, इसे पहन लूँ? क्या शेखर आप भी पिछले पच्चीस सालों से शादी की सालगिरह पर मुझे इसी साड़ी में देखना चाहते हो…। सच कहूँ मुझे भी अच्छा लगता है जब यह लाल साड़ी मुझे छूती है। प्रथम मिलन के आपके स्पर्श की याद दिला देती है। आप ठहरो मैं तैयार होकर आती हूँ। क्या! शर्म कीजिए आपके सामने…न न। कैसे हो ना!” शरम से इस उम्र में भी स्मृति के गाल लाल हो गए। दस मिनट में वह आईने के सामने थी।पैंतालीस बंसत पार करने के बाद भी उसके चेहरे की रौनक कम नहीं हुई थी लेकिन उसकी आँखों में कुछ तो था जो पहले जैसा नहीं था।
माथे पर सिंदूर का एक बड़ा सा टिका लगाकर आँखों में ढेर सा काजल भर लिया। बालों को खुलाकर हल्की सी लाली होंठों पर लगा ली।आज भी उतनी ही खूबसूरत दिख रही थी स्मृति।आईने में शेखर की आँखों को देख उसनें शर्म से अपने चेहरे को ढक लिया।
“आज भी उतनी ही खूबसूरत हो तुम! कान के नजदीक आ शेखर ने कहा। तुम्हारे यह बाल, तुम्हारी यह खूशबू सब वैसी ही जैसी पहले साल, ओह स्मृति!” कहकर शेखर ने उसे बाहों में कस लिया। “तुम्हें याद है ना मुझे तुम्हारी इन आँखों के काजल ने ही दीवाना बनाया था। तुम्हारी हर अदा पर घायल था मैं। कितने लड़के मरते थे तुम्हारी इन आँखों पर। पर पता नहीं कैसे मुझ बुद्धू को पसंद कर बैठी।” हँसते हुए शेखर ने कहा।
“खबरदार मेरी पसंद पर उंगली उठाई तो! आप क्या जानो कितनी शिद्दत से चाहती हूं तुम्हें। मेरा तो जीवन आप से शुरू है और आप पर ही खत्म।”
“तुम्हारी इसी चाहत ने तो मुझे बांध रखा है। ऐसा लगता है जैसे सदियों से मैं सिर्फ तुम्हारा था।” कहकर उसके गाल पर चुबंन दे दिया।
“छोड़िए मुझे ऐसे न सताइये। आपको तो बहाना चाहिए मेरी तारीफ का।” अपने चेहरे की मुस्कुराहट को दबाकर बनावटी गुस्से से वह बोली।
“कहो तो दिल चीरकर दिखा दूँ!”
“रहने दीजिए यह फिल्मी डायलॉग। खूब समझती हूँ आपकी शरारत।” बालों को बांधते वह बोली।
“न स्मृति इन्हें खुला छोड़ दो। यह तो दीवानगी है मेरी।”
स्मृति ने बालों को खोल दिया। कानों में झुमके डालने लगी।
“शेखर मेरे ब्लाउज की डोरी बांध दीजिए जरा मेरा हाथ नहीं पहुंच रहा है।” कहकर वह पीठ पर हाथ ले जाकर डोरी बांधने की असफल कोशिश करने लगी।” शेखर..सुनिए तो! अब देखो सुनेंगे नहीं। ठीक है खुद ही कर लूंगी। बातें बनवा लो बस।” थोड़ी कोशिश के बाद वह डोरी बांधने में सफल हो गई। आईने में खड़ी हो खुद को निहारने लगी। सुर्ख साड़ी में बिल्कुल नई दुल्हन सी।
“देखो कैसी लग रही हूं?” मुस्कुरा कर वह बोली..” ओह सिंदूर तो डाला नही। शेखर, आप ही डाल दो ना!”
सिंदूर की डिबिया लिए वह आईने के सामने लगी शेखर की तस्वीर के सामने खड़ी हो गई।”
“देखो आज भी वैसे ही सजी हूँ जैसे हर साल। वादा किया था ना तुमसे! हर साल इस दिन दुल्हन की तरह शृंगार करूंगी। मैं अपना वादा निभा रही हूं शेखर!” आँखों में वो जो कुछ था बरबस बह गया।
तस्वीर के सामने जलती हुई अगरबत्ती का धुआं उसकी ओर मुड़ गया। जैसे कह रहा हो…”मैं कहाँ गया पगली! यहीं तो हूँ तुम्हारे पास।”
— दिव्या राकेश शर्मा