धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

क्या हम ध्यान का अभ्यास करते हैं?

ओ३म्

मनुष्य एक चेतन प्राणी है। चेतन प्राणी उसको कहते हैं कि जिसका अपना शरीर होता है और उसमें एक चेतन जीवात्मा होता है। चेतन जीवात्मा के गुण ज्ञान व कर्म करने की अल्प शक्ति वा सामथ्र्य का होना है। हम मनुष्य हैं और हम जानते व देखते हैं कि मनुष्य चाहे संसार के किसी भी भाग में रहता हो, उन सबके अन्दर ज्ञान होता है और वह कर्म व पुरुषार्थ भी करता है। मनुष्य से इतर प्राणियों में स्वाभाविक ज्ञान होता है जिससे वह अपने जीवन को सुचारु रूप से चलाते हैं। वह अपने ज्ञान को बढ़ा नहीं सकते परन्तु अपने स्वाभाविक ज्ञान से वह अन्य प्राणियों से अपनी रक्षा का यत्न व उपाय करने सहित अपने भोजन की प्राप्ति व अन्य स्वभाविक क्रियाओं को करते हैं। मनुष्य में स्वाभाविक ज्ञान पशु व पक्षियों की दृष्टि से निम्न कोटि का होता है परन्तु मनुष्य को अपना नैमित्तिक ज्ञान बढ़ाने के लिये बुद्धि रूपी साधन ईश्वर से मिला हुआ है। इस बुद्धि के उपयोग से यह अपने ज्ञान को बढ़ा कर ईश्वर, आत्मा व सृष्टि की उत्पत्ति आदि विषयक अनेक रहस्यों को जानने में भी समर्थ होता है और अपने ज्ञान का सदुपयोग कर अपनी आवश्यकता व रक्षा के अनेक उपकरण व नये साधन उत्पन्न कर सकता है। मनुष्य जो भी करता है उसके लिये ज्ञान व शारीरिक शक्ति की आवश्यकता होती है। ज्ञान उसको गुरुओं व पुस्तकों के अध्ययन से प्राप्त होता है। ज्ञान चाहे गुरुओं से प्राप्त हो या पुस्तकों से अथवा अन्य किसी उपाय से, सभी प्रकार से ज्ञान प्राप्ति के लिये उसे ध्यान का सहारा व सहायता लेनी पड़ती है। ध्यान का अर्थ जिस विषय का अध्ययन कर रहे हैं उस पर अपनी सभी इन्द्रियों को केन्द्रित करना अथवा मन को अन्य सभी विषयों व कार्यों से हटाकर केवल एक ही विषय के अध्ययन में लगाना, उसे पूर्णतः व अधिकतम जानना होता है। इस प्रकार स्कूली अध्ययन करते हुए वह तीन विषयों का स्नातक बन जाता है और अधिक अध्ययन कर वह किसी एक विषय में स्नात्कोत्तर की उपाधि भी प्राप्त कर लेता है। अब उसे उस विषय का मास्टर कहा जाता है।

हम उन विद्याओं का ध्यान व अध्ययन तो करते ही हैं जिनसे हमें अर्थ प्राप्ति व दूसरों के साथ व्यवहार करना आता है परन्तु इसके अलावा भी अनेक विषय होते हैं जिनके विषय में हम व हमारी आत्मा जानने की इच्छुक रहती है। आत्मा उन विषयों को जितना भी जान पाती है उसे उसी अनुपात में सन्तोष, सुख एवं प्रसन्नता का अनुभव होता है। हमारे आसपास व परिवारों में ही बहुत से लोग हैं जो वेद व वैदिक ग्रन्थों का स्वाध्याय नहीं करते। उनसे यदि पूछें कि ईश्वर व आत्मा का स्वरूप बतायें, तो अधिकांश लोग इसका उत्तर नहीं दे सकेंगे। ऐसी स्थिति में यदि उन्हें स्वाध्याय या किसी दूसरे विद्वान मनुष्य के व्याख्यान से इच्छित विषय का ज्ञान हो जाये तो उन्हें सुख व सन्तोष की प्राप्ति होना स्वभाविक होता है। मनुष्य की जिज्ञासा की कोई सीमा नहीं है। अनेक प्रश्न हो सकते हैं जिन्हें मनुष्य जानना चाहता है। हम जो पढ़ते हैं वह कुछ देर तो हमें स्मरण रहता है परन्तु समय के साथ साथ वह धूमिल होकर विस्मृत हो जाता है। कुछ काल बाद हम बहुत सी पढ़ी व सुनी बातों को भूल भी जाते हैं। इसके लिये आवश्यक है कि हम जो पढ़ते हैं उस पर एकान्त में बैठकर चिन्तन व मनन करें। यह चिन्तन मनन ही ध्यान का अंग है। ध्यान को विचार करना या सोचना भी कह सकते हैं। किसी विषय का जब हम विचार चिन्तन करते हैं तो वह हमारी स्मृति में स्थिर हो जाता है और अधिक समय तक स्मरण रहता है। अतः हमें अपने व्यवसायिक कार्यों से सम्बन्धित साहित्य के अतिरिक्त वेद व वैदिक साहित्य का अध्ययन भी करना चाहिये जिससे हम अपनी आत्मा में उठने वाले सभी प्रश्नों व शंकाओं के समाधान जान सकें और उस ज्ञान के अनुरूप अपने जीवन की दशा व दिशा निर्धारित कर सकें।

मनुष्य जीवन हमने स्वयं प्राप्त नहीं किया है। हमारे माता-पिता इस जीवन में साधन तो बने हैं परन्तु जीवन एक अन्य सत्ता जिसे ईश्वर कहते हैं, उसकी देन व सौगात है। हमारा कर्तव्य है कि हम अपने आप को जानें और हमें जीवन देने वाले ईश्वर को भी जाने। हमें जो सृष्टि दिखाई देती है वह हमारे लिये सुख का कारण भी होती है और दुःख का कारण भी। यह भी सिद्धान्त है कि सुख का परिणाम दुःख होता है व हो सकता है। हर सुख का एक कारण होता है। अतः यदि हम सुखी होना चाहते हैं तो हमें सात्विक व धर्म के अच्छे कार्यों से धन व सम्पत्ति अर्जित कर सुखों को प्राप्त करना चाहिये। सुख की प्राप्ति हमें इन्द्रियों को विषयों में लगाने से होती है। ऐसा करने से हमारी इन्द्रियों की शक्ति क्षीण होती जाती है। जो बच्चे पुस्तकों का बहुत अधिक अध्ययन करते और स्वास्थ्य के नियमों का पालन नहीं करते उनकी आंखें कमजोर होकर उन्हें चश्में की सहायता लेनी पड़ती है। इसी प्रकार तेज ध्वनि व संगीत आदि सुनने से हमारे कान भी कमजोर व बहरे हो सकते हैं। ऐसा ही वाक, त्वचा एवं घ्राण इन्द्रियों के साथ होता है। अतः इन्द्रियों का अधिक उपभोग करना हमारी इन्द्रियों को क्षीण करता है। हमें अपनी इन्द्रियों का इस प्रकार से उपयोग करना चाहिये जिससे यह स्वस्थ एवं बलवान रहें और जीवन में अधिक समय तक हमारा साथ दें सकें। हमारा शरीर ही इन्द्रियों व मन के द्वारा हमें अभीष्ट विषयों का ज्ञान कराने में सहायक होता है। अतः शरीर व इन्द्रियों का सदुपयोग यम व नियमों के पालन सहित आसन व प्राणायाम का नियमित आचरण करते हुए करना चाहिये जिससे इनकी शक्ति बनी रहे।

ध्यान का मुख्य विषय तो ईश्वर आत्मा के विषय में हमने जो पढ़ा सुना हुआ है, उसका चिन्तन करना होता है। अन्य विषय गौण होते हैं। ईश्वर व जीवात्मा के ध्यान व चिन्तन-मनन को ही हम सन्ध्या व उपासना आदि नामों से जानते हैं। सन्ध्या के अतिरिक्त भी हमें अनेक उपयेागी विषयों में अपना ज्ञान बढ़ाने के लिये स्वाध्याय, अध्ययन करने सहित चिन्तन व मनन करना होता है। हम जब ध्यान करने लगते हैं तो उस विषय के अनेक पहलुओं पर विचार करने से हमें कुछ नई बातों का ज्ञान होता है। एक ही विषय पर बार-बार सोचने वा ध्यान करने से हमें उसके बारे में अधिक नई बातों व उनके अर्थों, प्रयोग व सदुपयोग का ज्ञान होता है जिससे हमें अन्य विषयों का ध्यान व चिन्तन करने में सहायता मिलती है। अतः स्वाध्याय एवं ध्यान का जीवन में अत्यन्त महत्व है। हमें अपना पर्याप्त समय धार्मिक एवं सामाजिक विषयों सहित ज्ञान विज्ञान विषयक साहित्य के अध्ययन ध्यान में लगाना चाहिये। इससे हमारे जीवन में चमत्कार हो सकता है।

ध्यान मुख्यतः ईश्वर का ध्यान करने को माना जाता है। योगदर्शन उपासना का दर्शन है। योग के आठ अंग हंै जिनमें से एक ध्यान भी है। यह ध्यान योग के अन्तिम अंग समाधि से ठीक पहले है। समाधि की प्राप्ति ध्यान से ही होती है और बिना ध्यान लगे समाधि को प्राप्त नहीं कर सकते। समाधि की अवस्था प्राप्त होने पर ही मनुष्य को ईश्वर का साक्षात्कार प्रत्यक्ष होता है। ध्यान समाधि में मनुष्य का जीवात्मा परमात्मा से पूर्णतः जुड़ जाता है और ईश्वर का आनन्द आत्मा में संचरित होता है जिससे जीवात्मा को ईश्वर के उस आनन्द की उपलब्धि होती है जो उसे अपने जीवन में उससे पूर्व कभी नहीं हुई थी। समाधि प्राप्त होने पर ध्याता की ईश्वर के अस्तित्व में किसी प्रकार की कोई भ्रान्ति नहीं रहती। मोक्ष के वर्णन में हमें पढ़ने को मिलता है कि मोक्ष में परमात्मा जीवात्मा को अनेक दिव्य साधन देता है। वह ईश्वर प्रदत्त दिव्य साधनों से पूरे ब्रह्माण्ड में निर्बाध रूप से विचरण करता है तथा संसार व इसके प्राणियों को देखता भी है। समाधि अवस्था प्राप्त होने पर जीवात्मा को भी ईश्वर का साक्षात दर्शन करने की योग्यता सम्भवतः जीवात्मा में आती है जिससे वह ईश्वर का साक्षात्कार कर बोल उठता है कि मैंने ईश्वर देख लिया व जान लिया है। मैं उस ब्रह्म का वर्णन व उपदेश कर सकता हूं व करता हूं। मैंने ईश्वर व संसार के ऋत व सत्य नियमों को भी जान लिया है, उनका वर्णन व उपदेश भी समाधि अवस्था को जीवात्मा करता व कर सकता है।

अतः ध्यान साधना मनुष्य को ईश्वर का साक्षात प्रत्यक्ष कराती है। यही सभी मनुष्य-आत्माओं का अन्तिम लक्ष्य है। इसके बाद किसी मनुष्य के लिए कुछ भी जानना शेष नहीं रहता। ईश्वर आत्मा को जानकर सब कुछ जान लिया जाता है। आत्मा को जिस सुख आनन्द की इच्छा खोज रहती है, वह भी समाधि अवस्था में पहुंच कर पूरी हो जाती है। इसके बाद मनुष्य स्वहित, स्वार्थ एवं सांसारिक कार्यों से अवकाश ले लेता है और ऋषि दयानन्द मुमुक्षु ऋषियों योगियों की तरह परमार्थ परोपकार में ही अपना जीवन व्यतीत करता है। सभी प्राणी, जीवात्मायें व मनुष्य उसके अपने हो जाते हैं। सबके प्रति उसका प्रेम व स्नेह का भाव रहता है। वह सबके हित व उन्नति के विषय में चिन्तन करता है, सबको सदुपदेश करता है और उन्हें भी समाधि व मोक्ष की ओर प्रेरित करता है जिससे वह भी अपने जीवन को सफल बना सकें। अनेक लाभ ध्यान करने से जीवन में होते हैं। अतः मनुष्य को किसी भी कार्य को करते हुए अपना पूरा ध्यान उस विषय को समझने पर केन्द्रित रखना चाहिये। इससे उसे सांसारिक एवं ध्यान योग के क्षेत्र में भी अनेक लाभ होंगे। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य