लघुकथा – मोक्ष
“हाय रे ,कित्ती शांत सुभाव ,कित्ती कमेरी थी रे ऊषिया। काहे चली गयी यों हमें छोड़ के। अब को सपेरेगो सब घर ..” उमादेवी मुँह पर धोती का पल्ला डाले कलप रही थीं।
“हाँ अम्माँ भौजी हतीं तो पतो हू न चलत हतो ,सब काम कब है जात हतो ।टैम पे खायबो पीवो मिल जात हतो ,कपड़ा प्रेस करे ,धुले …”राजन ने भाभी को याद करते हुये गालों पे ढुलके आँसू पोंछें।
“अब्बै उमर ही का थी बहुरिया की ,चालीस मुश्किल से पार भई हुइये।”बड़की बुआ ने सूखी आँखे जबरन आँचल के छोर से मसली
“कछु होय जिजिया।ऊषिया सुहागन मरी है। निशचै ही मोक्ष मिलेगो वाय तो।”पडोसिन काकी ने जैसे ऊषा को साक्षात् स्वर्ग में बैठे देख लिया।
माँ के अंतिम सँस्कार के सारे कर्मकांडों को रोते हुये विदेह ने चुपचाप पूरा किया था। चार दिन हुये थे ऊषा का इंतकाल हुये और रोज यही सब ।
“अम्माँ जी ,काश यह मान मम्मी को उनके जीते जी मिल जाता ,उनकी कदर ,नेकनीयती और दिन रात घर में खटने का सिला उनकी खुली आँखों और चलती साँसों के सामने मिल जाता तो कसम से मोक्ष तो जीते जी ही पा लेती वो। मरते समय घुटन ,संताप ,अकेलेपन ,और अपमान का संत्रास झेलते हुये नरक भोगते न जाती।”लाल आंखों से बाँध तोड़ते आँसुओं को रोका नहीं 18वर्षीय विदेह ने। पर माहौल में एक चुभती खामोशी छा गयी थी।
— मनोरमा जैन पाखी