इतिहास

दुनिया का आठवाँ आश्चर्य : सीगिरिय (श्री लंका)

किसीकी अनमोल अमानत बनना इतना आसान क्यों न हो, पूरे हिंद महा सागर के विराट मुल्कों में एक अलग अस्तित्व बनानेवाला टापू श्री लंका को ‘हिंद महा सागर का मोती’ उपनाम जन्म से मिला ख़िताब है। श्री लंका अपने चारों ओर फैले हुए समंदर तथा साहिल से लेकर वहाँ की भूमि के खन-खन पर मिलती एक-दूसरे से अलग, अनोखी प्रकृति का हकदार बनना उसका सबसे अहम कारण है। इस पुण्य वसुधा पर मिलनेवाली हज़ारों अनोखी प्राकृतिक सृष्टियों में गिने जानेवाला सीगिरिय, समंदर के पार की दुनिया के लिए श्री लंका की प्राकृतिक सौंदर्य की विभूति का गवाही बन बैठा है। प्राकृतिक सौंदर्य से ही नहीं, अपितु भौगोलिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक तथा राजनीतिक आदि पहलुओं में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभानेवाला सीगिरिय राष्ट्रीय तथा अंतःराष्ट्रीय पर्यटन स्थल के रूप में भी विश्व विख्यात है।

श्री लंका में मध्यम इलाके के मातले ज़िले में स्थित किबिंस्स गाँव के नज़दीक बसा हुआ सीगिरिय एक एकांत पर्वत है। कोलोंबो से 168 कि. मी. की दूरी पर स्थित सीगिरिय तक कोई भी अजनबी बहुत आसानी से पहुँच सकता है। रेलगाड़ी में सफ़र किया जाएगा तो ट्रिंको-बैटिकलो जानेवाली रेलगाड़ी से हबरण स्टेशन से होकर आप वहाँ पहुँच सकते हैं।

भौगोलिक दृष्टि से उसकी अवस्थिति अद्भुत है। मध्यम इलाके की अर्ध मैदानी भूमि पर सर्दी मुक्त, गर्मी से घिरा-बसा यह पर्वत ठंडापन घुली-मिली हवा में अहर्निश झूमता रहता है। पर्वत के दूर-दूर चरों ओर घिरी-बसी कमनीय पहाड़ों की पंक्ति वहाँ की सुरक्षा के लिए प्रकृति से मिली अनमोल देन है। दूर-दूर तक दिखता हुआ गगनचुंबी इस पर्वत की पूर्वी ओर एक सिंह का आभास है, इसलिए ऐसी मान्यता प्रचलित है कि ‘सिंह के आकार का गिरि’ अर्थ से इस पर्वत का नाम सीगिरिय निकला है। 180 मीटर ऊँचे इस पर्वत की हर तरफ़ एकदम ढलवीं है। मस्तक की भूमि 4 एकड़ की है, जिसपर बनाया गया राजमहल तथा उद्यान, सभी अंगों से परिनिष्ठित थे। वहाँ से दूर तक चरों ओर दौड़नेवाली मैदानी भूमि का प्राकृतिक अरण्य वहाँ का शुष्क वातावरण निगल लेता है। चोटी पर सीधा आसमान है, पर्वत पर चढ़नेवाले को वापस उतरने के लिए उसी रास्ता का प्रयोग करना पड़ता है, इसलिए कोई भी वहाँ चोरी-छिपे पहुँचना न मुमकिन है। पक्की सुरक्षा तथा उसमें शामिल प्राकृतिक अस्तित्व, इसलिए यह एक राजधानी से बढ़कर एक सुरक्षित किले के रूप में प्रख्यात है।

सीगिरिय का एक लंबा इतिहास है, जो ई. पू. तक दौड़ता है। श्री लंका के मानक मत के अनुसार सीगिरिय 5वीं सदी के उत्तरार्ध में राजा कश्यप ने ढूँढ़ा तथा अज सीगिरिय की जिस विभूति की महक उठती है, उसमें उसीके ही पसीने मिले-घुले हैं।

काश्यप तत्युगीन श्री लंका के पहलौठी राजधानी अनुराधपुर के एक राजा धातुसेन के तीन संतानों में एक है, अपनी बहन के साथ हुए बहनोई सेनापति मिगार की बुरी पिटाई पर क्रुद्ध होकर काश्यप के पिता राजा धतुसेन ने अपनी समधिन को नंगा जला देने की घोषणा की थी। इसपर गुस्सावेश में आये सेनापति मिगार अपने साले काश्यप को उसके पिता धातुसेन के विरुद्ध फुसला देते थे। राज्याभिषेक तथा दौलत की लालाच से उन्मत्त काश्यप ने अपने बहनोई की बातों में आकर अपने पिता की हत्या की और वहाँ से भाग निकला। काश्यप ने सोचा कि अपने भाई मुगलन पिता की हत्या का बदला लेने के किए आएँगे ही। इसी डर के मारे काश्यप भटकते-भटकते एक ऐसा स्थान चुन रहा था कि कोई भी आसानी से अपने करीब पहुँच न सके। काश्यप की इसी तलाश ने जंगल में छिपे सीगिरिय खोज निकाला और अपना सुरक्षा-किला उसपर बसाया। इतिहास का कहना है कि 473 ई. से 491 ई. तक का समय राजा काश्यप का शासन-काल रहा है।

यह किला सभी अगों से पोषित था, वहाँ की हिफ़ाज़त के लिए विकसित तकनीक का प्रयोग किया गया था। तत्युग में इस किले के निर्माण में जो नगर नियोजन शिल्प, वास्तु कला, विनिर्माण तकनीक, भूदृश्य कला, जल संसाधन प्रबंधन आदि का प्रयोग किया गया था, इनके ज्ञान की विशेषताओं पर आज भी खुदाई हो रही है। चोटी पर चार एकड़ में बना राजमहल दरबार, शयन कक्ष, सुरक्षा-कक्ष, चिकित्सालय, आराम कक्ष, सम्मलेन-कक्ष, प्राकार, उद्यान, गुलशन, जल-मार्ग, तालाब, फौवारे आदि अभी अंगों से सुसज्जित था। सममित आकार का बनाया गया जल-उद्यान तथा वहाँ की वारि-व्यवस्था का क्रियान्वयन प्राकृतिक वातावरण से संवेदनशील थे। वर्षा के साथ चालू होनेवाले वहाँ के फौवारे तत्युगीन देसी निर्माणकर्ताओं की आश्चर्यजनक क्षमताओं की गवाही हैं। आधुनिक अभियंता आज भी उसपर हैरान हैं। भूमिगत पानी का उपयोग किये बिना, 180 मीटर की उपरी के एक पत्थरी मस्तक पर बनाये गये राजमहल के संचालन के लिए किस प्रकार पानी का संचयन किया गया, वह आज भी सवाल है। उस करामत पर सीगिरिय अनौपचारिक आठवें आश्चर्य के रूप में विश्व प्रख्यात है।

सीगिरिय में करनेवाले खुदाई तथा अन्वेषण से सीगिरिय एक नगर के रूप में भी पहचाना गया है। वहाँ की नगर-योजना तत्युगीन शिल्प-विद्या की विशिष्टता का प्रमुख घटक है। श्री लंका में पुराने निर्मित नगरों में ‘सीगिरिय नगर’ गज़ब का निर्माण घोषित किया गया है, वर्त्तमान में बचे खंडहर से साबित होता है कि इस नगर के निर्माण में सुरक्षा पर अहम ध्यान दिया गया है। नगर के मुख्य द्वार से लेकर दोनों ओर दौड़नेवाले गहरे जल-मार्ग तथा प्राकार उसकी साफ़ गवाही हैं। जल-मार्ग 80 फुट के लगभर चौड़े हैं। उसपर एक ऐसा पुल भी था जो केवल ज़रूरी अवस्थाओं पर आने-जाने के लिए प्रयोग किया जा सके। जल-मार्ग के बाहर-भीतर बने प्राकार पत्थर तथा ईंट के हैं।

पत्थर पर चढ़ते-चढ़ते मिलनेवाले पत्थर में ही बनी गुफ़ा हरेक पर्यटकों की आँखें टिकनेवाला स्थान है। वहाँ की पत्थरी दीवारों पर बने सीगिरि चित्र (सीगिरिय में निर्मित चित्र) उनके मन लुभाये बिना नहीं छोड़ते। पूरा का पूरा क्यों न हो, आज जितना बचा रहता है, तत्युगीन चित्रकारिता के विशिष्टता के लिए उतना प्रमाणिक है। यही कारण काश्यप अवधि में अंकित ये चित्र विश्व-वंदनीय निर्माण बन गये। वर्तमान में उसपर अंकित चित्रों में से केवल सोने तथा नीले रंग की ललनाओं के 22 रूप बचे हैं। ये आसमान के बादलों से उतरती हुई हैं, इसलिए केवल इनकी कमर की उपरी देह चित्रित है। सोने रंग की ललनाओं की देहें नंगी हैं तथा नीली वालियों की देहें केवल कंचुकी से ढकी हैं। कहीं पर सोने तथा नीले रंग की ललनाओं की जोड़ी अंकित है तो कहीं पर सोने रंग की अकेली ललनाएँ। अन्वेषकों की खोज के अनुसार सोने रंग की 502 ललनाएँ यहाँ अंकित थीं, जिसका उल्लेखन 5वीं सदी में कैटपत प्रकार पर लिखित एक गीत में समाहित है।

चढ़कर सीगिरिय पर – देखीं सोनी ललनाएँ – पत्थरी दीवार पर

मानो गिरती हुई-सी – वे कैसे रहती हैं – यहाँ पर

कुछ ललनाएँ कमल और नील लमल खिलाती हैं, तो कुछ फूलों की थालियाँ सजाती हैं। कुछ ललनाएँ खिलाते हुए फूल नीचे गिराती हैं तो कुछ उसकी ओर देख रही हैं। कतिपयों के मतों के अनुसार ये ललनाएँ एक नाच पेश कर रही हैं। गुफ़ा की दाहिनी ओर अंकित एक वीणा धारण करती नारी का चित्र तथा एक मंजीरा जैसा वाद्य यंत्र हाथों में ली बूढ़ी औरत का चित्र उसका गवाह देते हैं, साथ ही कैटपत प्रकार के गीतों में भी उस बारे में उल्लिखित हैं। चित्रों भर सायं काल का आभास है, इसलिए ही बादल सोने के रंग से रंगे गये हैं। सूरज के डूब जाने के साथ मुरझाते हुए कमल और नील कमल भी यहाँ अंकित हैं, वे भी संध्या का अहसास दिलाते हैं, साथ ही यहाँ पर लिखित गीतों में भी सायं काल का वर्णन मिलाता है। देसी तथा प्राकृतिक पदार्थों के प्रयोग से अंकित इन रूपों के त्रिविमीय-गुण (लंबाई, चौडाई तथा ऊँचाई) का उभार दिखाने के लिए रंगों के माध्यम से हल्का अंधकार रचते हुए चित्रकार ने जो प्रयास किया है, अजब है। एक सख्त पत्थर की दीवार पर अंकित पतली-सीधी उँगलियाँ, पतली कमर, मांस से भरी चौड़ी गोद, उभरी पयोधर, होंठ, कान तथा पतली-लंबी काली आँखों वाली ये ललनाएँ मानो एक साहित्यिक अतिशयोक्ति है। इन ललनाओं का भाव-प्रकाशन इतना उत्कृष्ट हैं कि देखते-देखते ये ललनाएँ सजीव बन बैठती हैं। श्री लंका के प्रथम पुरातत्व के आयुक्त एच. सी. पी. बेल जी का अनुमान हैं कि सोने रंग से अंतःपुर स्त्रियाँ तथा नीले रंग से सेविकाएँ अंकित हैं तथा वे सभी ललनाओं का पिदुरंगल विहार की वंदना के लिए निकलना निरूपित किया गया है। आनंद कुमारस्वामी जी इससे विपरीत मत प्रस्तुत करते हैं। उनका कहना है कि यहाँ आसमान के बादलों से उतरती हुई ललनाएँ निरूपित हैं, इसलिए ये दिव्य अप्सराएँ हो सकती हैं और इनके द्वारा अपनी परिचारिकाओं के साथ मिलकर सीगिरि मस्तक पर फूलों की बरसात की जा रही है।

सुगंधित फूल पहनकर – फूलदार कुंतलवाली

कर में उठाकर – नीलकमल व चंपक फूल

एक रूपवती – पत्थर पर चिपक गयी

दूसरा कैटपत प्रकार सीगिरिय का अनमोल यादगार है। इसपर मुक्तक की आकृति में लिखे गीत हैं, जिनमें से लगभग 700 गीत पुरातत्व वैज्ञानिकों के द्वारा पहचाने गये हैं। उनका अनुमान है कि इनमें से अधिकाधिक गीत 8, 9 तथा 10वीं सदियों के हैं। सीगिरिय देखने के लिए आये हुए लोगों के द्वारा अपने-अपने विचार इसपर रचे गये हैं। ये गीत ‘कुरुटु गीत’ (घसीट के गीत) नाम से प्रचलित हैं। इन गीतों के शब्दार्थों में समाहित व्यंग्यार्थ गहरे हैं। ज़यादातर गीतों की विषय-वास्तु वहाँ पर अंकित चित्रों पर आधारित है, इसलिए ये गीत शृंगार रस-प्रधान हैं। इतिहासकार इन गीतों का गहरा अध्ययन करते हुए बताते हैं कि तत्युगीन कवियों का कवित्व तथा उस कवित्व का स्वतंत्र चिंतन इन गीतों में विद्यमान होते हैं। कतिपय कवियों ने अपने-अपने निर्माणों के नीचे अपनी पहचान भी (नाम, ग्राम आदि) दी है, तो कतिपय अपने नाम से पहले अपना पद भी देना नहीं भूले हैं। श्री लंका के एक उत्तम पुरातत्व इतिहासकार सेनरत परनाविताळ ने दो दशक भर आध्यायन करते हुए 685 गीत प्रकाशित किये हैं।

इन गीतों की रचना के लिए जिन लिपियों का प्रयोग किया गया है, वे तत्युग में प्रयुक्त भाषा के विकास के प्रबल प्रमाण हैं। साथ ही आज श्री लंका में प्रयुक्त राष्ट्र भाषा सिंहली किस प्रकार विक्सित हुई थी, वह कहानी कालांतर में लिखे इन गीतों की लिपियाँ बताती हैं। श्री लंका के एक महाप्राण भाषाविद प्रॉ. जे. बी. दिसानायक ने अपने विचारों में अंतर्गत किया है कि इस शिला-खंड पर रचित ये गीत सिंहली भाषा की इतिहास-कहानी में सिंहली-प्राकृत युग के बाद आनेवाले पुरातन सिंहली युग की भाषिक विशेषताओं से संबंधित अत्यंत महत्वपूर्ण श्रोत रहे हैं, लेकिन इन गीतों की भाषा में कुछ ऐसी विशेषताएँ भी अवश्य हैं, जो श्री लंका में प्रयुक्त दूसरे लिपियों में दिखाई नहीं देता, इसलिए वे आगे बताते हैं कि इस भाषा को ‘सीगिरी सिंहली’ नाम से एक अलग पहचान देना तर्कसंगत है।

सीगिरिय में ईंटों के बने हुए सिंह–पाद सीगिरिय की विभूति, वीरता तथा निर्भीकता दर्शाते हैं। जनश्रुतियों के अनुसार इस पत्थर के नीचे-तले सीढ़ी के दोनों ओर से लेकर ऊपर उठनेवाली बड़ी-सी सिंह-मूर्ति थी, यह मान्यता भी प्रचलित है कि उसी सिंह रूप के कारण यह पर्वत सिंह की गिरी सिंहगिरि (सीगिरिय) नाम से जानने लगा है। कतिपय विचारकों का ऐसा अंदाज़ा भी था कि ये पैर सिंह के नहीं, किसी पक्षी के पैर हो सकते हैं, लेकिन एच. सी. पी. बेल जी का विचार यह था कि ये सिंह के पाद हो सकते हैं। बेल जी के पश्चात यहाँ आये हुए पुरातत्ववेत्ताओं के द्वारा बेल जी के मत का अनुसरण किया जाने के कारण यही मत एक मान्यता के रूप में माना जाने लगा।

सीगिरिय एक आरक्षण किले के रूप में अपने सारे परिधानों से सुसज्जित रहने से पहले उसका पतन हुआ है। यहाँ तक इतिहास बताता है कि राजा धातुसेन की मृत्यु के पश्चात काश्यप के सगे भाई कुमार मुगलन अपनी जान बचाने के लिए इंडिया भाग निकले और 18 साल बाद श्री लंका पहुँचकर अपने पिता की मौत का बदला लेने के लिए सेना सहित काश्यप का मुखाबला करते थे। उस युद्ध में राजा कश्यप अपना गला काटकर आत्महत्या कर लेते हैं। पर्वत के पश्चिमी द्वार की खुदाई से प्राप्त राजमहल तथा उद्यान के खंडहर वर्त्तमान में हम देख सकते हैं। पूर्वी द्वार के अन्वेषणों के अनुसार अन्वेषकों का अनुमान है कि पूर्वी ओर की इमारतों के विनिर्माण-कार्य के बीच में मुगलन का आक्रमण हुआ, इसलिए वहाँ के विनिर्माण वहीं रुक गया है।

यद्यपि सीगिरिय राजा काश्यप का निर्माण था तथापि सीगिरिय का उससे भी पुराना एक गढ़ा-छिपा इतिहास है, जो ई. पू. के राजा रावण से जुड़ा होता है। ‘रवणा वत’ नामक ताड़पत्र-ग्रंथ के अनुसार राजा रावण के पिता राजा वेसमुणि के हुकुम पर निर्मित सीगिरिय तत्युग में ‘आलकमंदाव’ नाम से पहचाना गया था। सीगिरिय से रावण का संबंध साबित करने के लिए आज तक बहुत सामाग्री खोजी गयी है। उनके अनुसार पहचाना गया है कि सीगिरिय राजा रावण का विमान था तथा सीता के अपहरण के साथ हुए राम-रावण युद्ध में रावण की मृत्यु के साथ जंगल ने उस पर्वत को काबू में रख लिया है। सीगिरिय में खुदाई करते हुए पुरातत्वज्ञ बताते हैं कि केवल पूर्व काश्यप युक के ही नहीं, बल्कि काश्यप युग से संबंधित बहुत तथ्य अभी भी गढ़े हैं। उनका अंदाजा है कि इस पर्वत पर बने राजमहल पहुँचने के लिए पर्वत के भीतर एक सुरंग विद्यमान था। डॉ. मिरैंडो ऑबेसेकर के सीगिरिय से संबंधित उल्लेखनों में सबसे पहले यह लिखा है कि आज तक के देशी-विदेशी विद्वानों, कलाकारों, कवियों लेखकों तथा पत्रकारों का ध्यान इस शिला-पर्वत की आड़ में गढ़ गये महान इतिहास पर न पड़कर केवल वहाँ की दृष्टिगत उपरी बनावट पर ही पड़ा है, इसलिए सीहिरिय के इतिहास पर स्पष्ट निष्कर्ष पर पहुँचना आभी भी न मुमकिन बात रही है।

सीगिरिय की इन असीम विशेषताओं के कारण सन् 1982 में युनेस्को के द्वारा सीगिरिय विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया है। विश्व वंदनीय, विश्वविख्यात यह कलामंडप प्राकृतिक सौंदर्य से लेकर आर्थिक, सामाजिक, कला, साहित्य, वीरता आदि हर पहलू की विभूति दर्शारा है। आज तक देशी-विदेशी प्रत्येक पर्यटकों की निगाहों से न टलनेवाला सीगिरिय आगे भी अपने वही चमत्कार के साथ लाखों के दिलों में बस जाएगा, यह ज़रूरी है।

— डी. डी. धनंजय वितानगे