गीत/नवगीत

क्यों जीवन व्यर्थ गंवाता है

निश्छल और निष्पाप रूप में
जीव  धरा  पर  आता है
आसक्ति और मोह के वश में
जीवन  व्यर्थ  गंवाता  है

ज्ञानी रावण भी क्रोधित हो
पर  स्त्री  हर  लाता  है
तीनों लोक विजय पाकर भी
रण में  मृत हो जाता है

नश्वर  है  ये देह  हमारी
कंस  जान  ना  पाता है
युक्ति सारी अपना कर भी
मृत्यु  अंत  में  पाता  है

चक्र बदलने को जीवन का
क्या  क्या  तू  अपनाता  है
खेल  ही  सारा  प्रभू  रचे है
प्राणी  जान  ना  पाता  है

काम, क्रोध और लोभी मन
ये  पाप  सभी  करवाता  है
धन, दौलत हो महल अटारी
धरा  यहीं  रह  जाता  है

प्रत्युत्तर में फल कर्मों का
इसी  धरा  पर  पाता  है
जन्म सफल करने का अवसर
यूँ  ही  व्यर्थ  गंवाता  है

मानव जीवन ही पूँजी है
क्यों बुरे कर्म अपनाता है
सत्कर्मों से सुन हे मानव
नाम  अमर  हो  जाता है

अमित ‘मौन’

अमित मिश्रा 'मौन'

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