मुक्तकाव्य
“मुक्तकाव्य”
वो जाग रहा है
हमारी सुखनिद्रा के लिए
अमन चैन के लिए
सीमा की चौहद्दी के लिए
और आप! अपनी ही जुगलबंदी अलाप रहें हैं
निकलिए बाहर और देखिए सूरज अपनी जगह पर है
चाँद! अपनी रोशनी से नहला रहा है
बर्फ की चादरों पर वीर सैनिक गुनगुना रहा है
कश्मीर से कन्याकुमारी तक आवाज जा रही है
जय हिंद की हुंकार से पड़ोसी बेहोश हुआ जा रहा है
वंदेमातरम की मिठास अब विदेश की धरती से आ रही है
और आप कड़वी नीम चबा रहें है
देखिए वो जाग रहा है
कश्मीर अपने फूलों से नहा रहा है
लद्दाख का सियाचिन मुस्कुरा रहा है।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी