धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

वेद मन्त्र साधना पर विचार

ओ३म्

वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है जो सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ने चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा की आत्माओं में अपने जीवस्थ स्वरूप से दिया था। ज्ञान, कर्म, उपासना और विज्ञान से युक्त चार वेदों के नाम ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद हैं। मन्त्र संख्या वा आकार की दृष्टि से ऋग्वेद चार वेदों में सबसे बड़ा है। इसकी कुल मन्त्र संख्या 10552 है। वेदों के सभी मन्त्रों में ईश्वर के सत्यस्वरूप सहित उसके गुण, कर्म, स्वभाव एवं परा व अपरा विद्याओं का विस्तृत महत्वपूर्ण ज्ञान है जो बुद्धि व तर्क संगत होने सहित सृष्टि-क्रम के सर्वथा अनुकूल है। ऋग्वेद व अन्य तीन वेदों के मन्त्रों की साधना पर विचार करते हैं तो यह तथ्य स्पष्ट होता है कि वेद मन्त्रों को शुद्ध रूप में सुरक्षित रखते हुए इससे जुड़ी प्रत्येक परम्परा जिससे वेदों की रक्षा तथा शुद्धता सुरक्षित रहती है और जिससे सत्य वेदार्थ का लाभ मिलता है, उसे जारी रहनी है। वेदों के जो आठ विकृति पाठ अथवा 11 संहिता पाठ हैं उनकी भी रक्षा होनी चाहिये और इसके लिये सरकार या वेदभक्तों को सभी प्रकार के उपाय करने चाहियें। यह कार्य भी एक प्रकार से वेद मन्त्र साधनायें ही हंै। यदि वेद अपने शुद्ध रूप व यथार्थ वेदार्थ सहित सुरक्षित नहीं रहेंगे तो फिर वेदों का महत्व इतिहास की दृष्टि से तो रहेगा परन्तु उनकी प्रासंगिकता नहीं होगी।

वेद मन्त्र साधना पर विचार करते हैं तो इसके अन्तर्गत वेदों का वेदार्थ मुख्य रूप से जानना होता है। ऋषि दयानन्द से हमें ज्ञात हुआ कि वेदों के छः अंग शिक्षा, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, कल्प, ज्योतिष हैं। योग, सांख्य, न्याय, वैशेषिक, वेदान्त और मीमांसा दर्शनों को वेदों का उपांग बताया गया है। इन सबका जिसको ज्ञान होता है और जो ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए योगाभ्यास व ईश्वर की भक्ति में संलग्न रहता है वही वेदार्थ का ज्ञाता और सच्चा उपासक होता है। उसका जाना गया व किया हुआ वेदार्थ ही प्रामाणिक होता है। ऋषि दयानन्द ने अपने गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी से यह भी जाना था कि वेद स्वतः प्रमाण हैं और अन्य सभी ग्रन्थ वेदानुकूल होने पर परतः प्रमाण माने जाते हैं। जिस ग्रन्थ की कोई बात वेद के विपरीत हो तो वह अप्रमाणिक होती है। इसके साथ वेद मन्त्रों का अर्थ करते हुए भाष्यकार को यह ध्यान भी रखना होता है कि उनका किया वेदार्थ सृष्टि कर्म के अनुकूल होने के साथ चारों वेदों के अर्थों में कहीं पर भी सैद्धान्तिक विरोध न हो। ऋषि दयानन्द ने उस नियम को दृष्टि में रखकर यजुर्वेद का संस्कृत और हिन्दी में भाष्य किया था। वह यजुर्वेद के साथ-साथ ऋग्वेद का भाष्य भी कर रहे थे। जोधपुर में अक्टूबर, 1883 में विष दिये जाने के कारण उनका ऋग्वेदभाष्य बाधित हो गया था। विष दिये जाने के समय तक वह ऋग्वेद के सातवें मण्डल के पांचवे अध्याय के दूसरे मन्त्र तक का भाष्य भी कर पाये थे। इसके बाद उनकी रुग्णावस्था और मृत्यु के कारण वेदभाष्य नहीं हो सका। उन्होंने जितना वेदभाष्य किया है वह सर्वथा प्रामाणिक है और इस पर किसी को किसी प्रकार की शंका नहीं हो सकती। ऋषि दयानन्द के समय श्री सायणाचार्य का ऋग्वेद सहित चारों वेद पर भाष्य उपलब्ध था परन्तु वह प्रामाणिकता की दृष्टि से निर्दोष नहीं है। ऋषि दयानन्द ने उसमें अनेक त्रुटियां बताई हैं। उन्होंने सभी मन्त्रों के केवल यज्ञीय अर्थ ही किये हैं तथा ऋषि दयानन्द की तरह आधिदैविक, अधिभौतिक तथा आध्यात्मिक सहित पारमार्थिक व व्यवहारिक अर्थ नहीं किये। उनके भाष्य का यह भी दोष है कि वह प्रसंग का ध्यान नहीं रखते और उसमें हिंसा व अश्लीलता आदि भी पाई जाती है।

ऋग्वेद आदि वेद के मन्त्रों की साधना का अभिप्रायः यही है कि हमें वेद मन्त्रों का सस्वर पाठ आना चाहिये और हमें उसके सत्यार्थ का अनुसंधान कर उसे प्रचारित करना चाहिये। वेद मन्त्रों में ईश्वर का जो स्वरूप निरुपित हुआ है उसे आत्मसात कर उसे हमें अपनी उपासना में समाहित करना चाहिये और ईश्वर के वेदवर्णित गुण, कर्म व स्वभाव को ईश्वर का ध्यान करते हुए अपने चिन्तन में बनाये रखना चाहिये। जब हम वेद के मन्त्रों के यथार्थ अर्थों को जान लेंगे और उनके अनुरूप ही हमारे विचार, भाव तथा जीवन होगा तब हमारा जीवन वेदमय कहा जायेगा। ऋषि दयानन्द जी के जीवन में यही बात दृष्टिगोचर होती है। वह वेदज्ञ थे। उन्होंने चारों वेदों के ज्ञान को आत्मसात किया हुआ था। उनका जीवन पूर्णरूपेण वेदमय था। इसे इस रूप में भी कह सकते हैं कि उन्होंने वेद को व उसके मन्त्रों को अपने जीवन में साधा हुआ था। ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में वेदपथ पर चलने हुए कभी वेद विपरीत कोई आचरण नहीं किया। वह वेद के सच्चे साधक सिद्ध हुए हैं। जब भी किसी वेदसाधक आदर्श सिद्धपुरुष की बात होगी तो ऋषि दयानन्द का नाम सबसे ऊपर व सबसे पहले लिया जायेगा। आज सारा देश, मानव समाज तथा विश्व ऋषि दयानन्द के वेदभाष्य एवं वैदिक विषयों पर उनके ग्रन्थों से लाभान्वित हो रहे हैं। ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका उनका वेद के महत्व को प्रतिपादित करने वाला प्रमुख व प्रामाणिक ग्रन्थ है जिसकी प्रशंसा विदेशी विद्वान प्रो. मैक्समूलर ने भी की है। ऋषि के जीवन से विदित होता है कि वेद के मन्त्रों का शुद्ध उच्चारण, यथार्थ वेदार्थ का ज्ञान एवं तदनुकूल आचरण ही वेद मन्त्र साधना कहलाती है। यही वेद और वैदिक साहित्य का अध्ययन करने से ज्ञात होता है। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य