कविता

मेरे भारत देश को

क्या हो गया मेरे भारत देश को
किसकी नजर लग गई मेरे देश को
मानव है मगर मानवता  नहीं है
क्रोध हैं मगर सहजता नहीं है
लोग सम्भाल नहीं पा रहे अब
अपने गुस्से और आवेश को
क्या हो गया मेरे भारत देश को
नन्हीं कली यहाँ खिलने से पहले
तोड़ी और मरोड़ी जाती है
औरत यहाँ कुलटा कहकर
घर से निकाली छोडी जाती है
गाय का मांस खाकर लोग इतराते है
छल कपट द्वेष सबके मन को भाते है
साधू सन्यासी रास रचाते है
चोर चोरी करके शोर मचाते है
क्या से क्या बना दिया लोगों ने
मेरे जान से प्यारे देश को
क्या हो गया मेरे भारत देश को
अपनो के लहू से लोग नहाते है
जिंदा होकर मुर्दा जानवर खाते है
फिर भी कभी नहीं शरमाते है
कैसे दूर करू मैं मानव मन में
उपजे इस दोमुँहे क्रूर क्लेश को
क्या हो गया मेरे भारत देश को
चारो ओर जाति धर्म के दंगे है
मजहब का पाठ पढ़ाने वाले
खुद बेगैरत भूखे और नंगे है
यहाँ पंडित मौलवी सब बन
बैठे हैं पाखंडी और व्यभिचारी
मानवता का पाठ पढाते अत्चारी
बलात्कारी मिलते नित नये
शर्मसार करते साधु संत
और मौलवी के सुंदर भेष को
क्या हो गया मेरे भारत देश को
अब तो पाखाने पर भी पाबंदी
मार डाला मासूमों को पापियो
कितनी सोच तुम्हारी गंदी है
मुज़रिम अब डरता नही यहाँ
कानून के बलशाली डंडे से
लोग अब कर्म छोड़ किस्मत
पूछ रहे लोभी पाखंडी पंडे से
अब और मुझसे सहा नहीं जाता
कितना कुछ होता कहा नहीं जाता
अब रिश्तो में भी गणित है चलती
हिन्दी बेचारी रह गई हाथ मलती
कुछ भी बचा नही अब भाजक
भाज्य भजनफल शेष को
क्या हो गया मेरे भारत देश को
आरती त्रिपाठी 

आरती त्रिपाठी

जिला सीधी मध्यप्रदेश