मेरा गाँव
कभी बड़ा खूबसूरत था मेरा गाँव
मिलती थी बरगद वाली ठण्डी छाँव
शहरों ने सीमा जब से तोड़ी
गाँव की पगड़ंडियां हुई चौड़ी
लग गई हवा शहर की गाँव को,
तो हर चीज का होने लगा मोलभाव
हृदय बने मशीनी दया रही न तनिक
ऑनलाइन रिस्तों में मिली न महक
हरे – भरे खेत सब हो गये बंजर
कैसा चला गाँव पर शहरी खंजर
सर्वत्र खड़ा कचरे का पहाड़ मिले
धरती के ऑचल में विनाश पले
कभी बड़ा खूबसूरत था मेरा गाँव
अब पहले जैसा नहीं रहा मेरा गाँव
— मुकेश कुमार ऋषि वर्मा