कहानी – भटकन
मदमस्त हिरणी बनी परिपक्व उम्र में भी कुलाँचे भरती कस्तूरी के पीछे भागी जा रही थी पर ना जाने क्यों अस्वस्थ पति के उतरे चेहरे देख एक अपराधबोध से भरी मैं राज के सेवा में जूट गई। एक पल खुद को दोषी मानती पर दूसरे ही पल रंजन दिलो-दिमाग पर छा जाता। कुछ तो था ….जिसे शब्द नहीं दे पा रही थी पर महसूस कर रही थी।
आज बरसों बाद राज के पसंद का खाना बनाया,उनकी पसंद की साड़ी पहनी।दर्पण देखते होठों पर एक मुस्कान आ गई ……नीली साड़ी पहने जब भी राज मुझे देखते तो छेड़ते हुए कहते ‘ आज बदरी बन किस पर बरसना है ” और मैं शरम से उनके सीने पर सर रख देती।
जाने वो दिन कहाँ खो गये, मशीनी जिन्दगी हो गई है हमारी जिसमें सब खो गया है।राज को पुरानी बातें सुनाती हूँ तो दिमागी फितुर बता टाल देते हैं “संजू तब की बात और थी अब हम मैच्योर हो गयें हैं “।मैच्योर होने का अर्थ क्या सिर्फ एक दूसरे के प्रति ड्यूटी निभाना है। आँसू ना चाहते हुए भी छलक गये और मन में छूपा रंजन फिर से हावी होने लगा …वो होता तो ऐसा कहता, वो होता तो ऐसा होता ।लंबी सांसे छोड़ती मैं वर्तमान में वापस आ गई।
राज की प्रशंसात्मक नजरें मेरा पीछा कर रही थी।आज ना जाने कितने दिनों बाद हम एक साथ बैठकर खाना खा रहे थे। राज के कनपटी पर उग आए सफेद बाल को देख मुझे भी अपनी बढ़ती उम्र का एहसास हो रहा था।तभी राज ने मुझे बताया उनके फेसबुक पर किसी ‘रंजन ‘ ने फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजा है जो संजना यानि मेरा म्युचल फ्रेंड है………सन्न से जैसे कोई नुकीला तीर दिमाग की तहों को चीरता गया।मैंने जल्दबाजी में कह दिया ” फेसबुक के साहित्यिक समूहों में कई लेखक लेखिकाओं से परिचय और दोस्ती हुई है ,उन्ही में से ये एक हैं पर व्यक्तिगत रूप से मैं इन्हें नहीं पहचानती।
दिसंबर की ठंड में भी पसीने से तर बतर हो रही थी, दिमाग जमा हुआ प्रतीत हो रहा था…क्यों भेजा है रंजन ने राज को फ्रेंड रिक्वेस्ट, क्या चाहता है वो ? एक डर पैदा हो रहा था पर रंजन को गलत मानने के लिए दिल तैयार ही नहीं था,आखिर जिसने मुझे सिद्दत से चाहा है वो मेरा बुरा क्यों करेगा ।आखिर उसमें इतनी तो समझदारी होगी ही कि …..समझदारी , उफ़ मैं कहाँ दिखा पाई समझदारी,सब कुछ होते हुए भी अपरिचित, पराए मर्द की बाँहों में बंधने के ख्वाब से कहाँ रोक पाई खुद को।अर्थ और बिंब समझते समझाते मैंने तो उसे मसीहा से प्रेमी बना लिया।
मन करता दीवार पर जा कर सिर पटक दूँ । मोबाइल देख चिढ़ हो रहा था , आखिर सबका कुसूरवार यही था। स्त्री के त्रियाचरित्र को तो ईश्वर भी नहीं समझ सकता। मैंने चेहरे पर हंसी लाते हुए राज को प्यार से खाना खिलाकर दवा दिया, ना जाने कब का दबा प्यार उभर कर सामने आ रहा था या एक डर था जिसे दबाने की कोशिश में ये स्वाभाविक रूप से हो रहा था।
राज को आराम करने के लिए कहा तो उसने हाथ पकड़ मुझे भी बगल में बैठा दिया।आज सालों बाद उनके पास मेरे लिए समय और प्यार दिख रहा था या मैं ही रंजन में उलझी पति के प्यार को अनदेखा कर रही थी ।दिल दिमाग कुछ अपने वश में नहीं लग रहा है ।पति ने हमदोनों का पसंदीदा गाना म्युजिक सिस्टम पर लगा दिया,कभी मैं राज के साथ इस गाने को गुनगुनाती थी,पर आज…..,मैं शरीर से तो उपस्थित थी पर दिमाग रंजन के भेजे रिक्वेस्ट पर अटका था। ” हम तुम्हे चाहतें हैं ऐसे ,मरने वाला जिन्दगी चाहता हो जैसे ” मेरे मनोभावों से अंजान राज गाने के साथ गुनगुना रहे थे। कैसे मना करुँ इन्हें ….दो दिन पहले रंजन ने भी तो इसी गाने क अपनी आवाज दे कर ऑडियो पर भेजा था। नहीं जानती हूँ आगे क्या होगा पर राज और रंजन के बीच खुद को फंसी हुई महसूस कर रही थी,दम घुट रहा था मेरा तभी राज ने ठहाके लगाते हुए मुझे आँख मारते कहा ‘ लो एक्सेप्ट कर ली तुम्हारे लेखक मित्र की रिक्वेस्ट ‘ ।धम्म् से जैसे आसमान से नीचे गिरी,मेरे मन में तो चोर था,मेरी चोरी कहीं ना पकड़ ली जाए।
ईश्वर से मना रही थी ‘मीनू’ मेरी सहेली जल्दी से जल्दी घर आ जाए ,फिर हम दोनों इस समस्या का समाधान निकाल लें। राज पूर्णतः स्वस्थ होकर आफिस जाने लगे थे ,मैंने जिदकर मीनू को घर बुला लिया। ” ओ मेरी जान आजकल तो आप छाई हुईं हैं ।बडे बड़े लेखक आप पर मेहरबान हैं ” बोल कर गले मिली तो मैं हडबडा गई ,लग रहा था मेरी चोरी जो मैने राज से छूपा कर रखा था ,इसने पकड़ लिया है पर मैंने खोखली हंसीं हंसते उसे चाय का प्याला पकड़ाया…… शायद चाय के भांप की तरह मेरी समस्या भी हवा में समा जाए।
धीरे-धीरे मैने सारी बातें मीनू को बताया , ऐसे समय दोस्त ही काम आते हैं पर वो तो मुझ पर भड़क गई और मुझे ही उल्टा सीधा कहने लगी।मैं राज की कमियों को गिनाती रही लेकिन वो अनसुना कर मुझे गलत ठहराती और भटकती हुई बोल चरित्र हीन की उपाधि दे दी ।”संजना आभासी दुनिया से निकलो,ये तुम्हारा घर बरबाद कर देगा।पति और दो युवा होते बच्चों का सोचो,उन पर क्या बीतेगी जब वे तुम्हारे चरित्र का ये पहलु देखेंगे “।
कैसे उसे समझाती , रंजन ने दिल के जिस कोने में दस्तक दिया है वो तो हमेशा से खाली ही था। नैतिकता, अनैतिकता ,चरित्र कहाँ समझ आता है जब दिल दिमाग पर हावी हो जाता है ।ऐसी चक्रव्यूह में फंस गई थी जिससे चाह कर भी निकलना मुश्किल था।
आज राज भी बहुत खुश हो कर आए , किसी बड़ी पार्टी से डील हुई थी।मीनू को देख उनकी बांछे खिल गई थी आखिर जीजा साली का रिश्ता जो था।उनके हंसी मजाक में जाने कहाँ से रंजन की तस्वीर मेरे आँखो के सामने नाचने लगा , किसी अदृश्य डोर से बाँध लिया था शायद, उसने मुझे । जानती हूँ गलत हूँ पर दिल के हाथों मजबूर हो चुकी हूँ ।पति के नासाज़ तबियत के कारण कुछ दिनों तक रंजन से दूर रही पर अब उसकी बातें, उसका कहकहा लगाना मिस कर रही थी।रंजन से जितना दूर जाना चाहती वो उतना ही दिल पर हावी हो जाता।
राज के फोन पर लगातार मैसेज ट्यून बज रहे हैं पता नहीं कोई अर्जेन्ट है क्या ? वे तो मीनू के साथ गप्प मारने में व्यस्त थे।मैने जैसे ही मैसेज खोला चक्कर सा आने लगा …. रंजन और मेरी चैटिंग का स्क्रीनशॉट ,क्या चाहता है रंजन,जमीन से पैर खिसक रहा था,जल्द से जल्द उसे हटाना चाहा तभी राज ने चाय की फरमाइश कर मुझसे मोबाइल ले किसी से बात करने लगे।
मीनू मेरे चेहरे के उड़ते रंगों को देख कर कुछ अंदाजा लगा ली थी, मेरे पीछे वो भी किचन आई ,बिना बोले सब समझ गई थी ।
” ईश्वर जाने रंजन ऐसा क्यों कर रहा है” रुंधे गले से मैने मीनू को कहा।पलट कर बरस पड़ी वो “जिस राह पर तुम चल रही थी ,ये तो होना ही था।अभी भी वक्त है संभल जाओ “। इश्क के तोते उड़ गये थे ,पता नहीं अब राज का सामना कैसे करूँगी । बुझे मन से चाय और मठरी लेकर राज के पास गई,वे मैसेज पढ़ने में तल्लीन थे।सिर पर पड़ते बल देख समझ आ रहा था मुझे कुछ अनहोनी होने वाला है।
मरी हुई आवाज़ में कहा …राज चाय ,मेरे बोलते ही मानों बम विस्फोट हुआ “ये क्या है संजना,आखें बंद कर तुम पर विश्वास करता था और तुम मुझे चिट कर रही थी।रंजन ने मुझे फोन पर बताया था सब पर मैं बेवकूफ कोरा बकवास मान उसे ही डांट दिया पर जब ये सुबूत सामने हैं तो क्या कहूँ। राज की आँखे लाल थी ,पहली बार पनीली भी दिखी ।
धुआँ, अंगारो और भाप की भट्ठी पर बैठी, मुझे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था क्या कहूँ । रंजन ने शायद ब्लाक करने का बदला लिया था……..मैं तो अनब्लाक करने की सोच ही रही थी। इतना भी सब्र नहीं किया गया उससे। क्या प्यार ऐसा ही होता है
राज की तेज आवाज सुन कर मीनू उन्हे शाँत करवाने की कोशिश करने लगी।राज का टेम्पर कम ही नहीं हो रहा था,आग्नेय नेत्रों से मुझे इस तरह देख रहे थे कि मैं सिहर उठी ।मेरे सपनों का लाक्षागृह मेरे सामने भस्म हो गया था।काश!धरती फट जाती और मैं उसमें समा
जाती……पर सती सावित्री तो थी नहीं जो धरा मुझे पनाह देती,मै तो रंजन की हमबिस्तर होने के लिए तैयार थी वो तो भला हुई मौका ही नहीं मिला।अत्याधिक टेंशन से सर फटा जा रहा था कब गश खाकर गिर पड़ी कुछ समझ नहीं आया…….
होश आने पर खुद को बिस्तर पर पाई , राज डाक्टर से बात कर रहे थे।मीनू मेरे बगल बैठ मेरा हाथ सहला रही थी।ब्लड प्रेशर बढ़ गया था।मैं किसी से नजर नहीं मिला पा रही थी,अनजाने में की गई गलती क्षम्य होती है जानबूझकर की गई गलती की तो सजा ही मिलती है।
दिमाग में मीनू की बातें चल रही थी,उसने किचन में बताया था कि….. रंजन उसके ननद का पति है,साहित्य मंच पर संजना की प्रशंसा करते करते उसके तरफ आकर्षित हो कर पत्नी की अवहेलना करना शुरू कर दिए हैं जबकि उनकी पत्नी सुन्दर सुघड़ महिला है। जब मीनू को सब पता चला तो वो मुझें समझाने आई थी पर तब तक तो तो बहुत देर हो चुका था।
मेरी नादानी से दो गृहस्थी टूटने के कगार पर खड़ी थी। ये तो भला हुआ रंजन से मुलाकात नहीं हो पाई थी,मुलाक़ात होताअतो क्या देह की सीमा लाँघे बिना आ पाती।जितना सोचती उतना ही अपने कर्मो पर पछतावा होता। मन कर रहा था राज से माफी माँग लू पर किस मुंह से मांगती, जिसने अपना तन मन धन सब मुझ पर न्योछावर किया उसे मैं धोखा दे रही थी।
मीनू ने राज को समझाने की कोशिश की तो उसे पति-पत्नी के बीच ना पडने को कह हाथ जोड़ लिया ।अपमान से बढ़कर कोई ऐसी शक्ति नही है जो आत्मा को खींच कर बाहर निकाल दे। अपमानित महसूस कर रहे होंगे राज नहीं तो मीनू से ऐसे कभी बात नहीं करते हैं वो।
दो दिन बाद मीनू भी अपने घर वापस हो गई आखिर रुक कर करती भी क्या? जिस आग में मैंने शौक से हाथ डाला था उसमे जलकर जलन का अनुभव मुझे ही करना था ना। राज ने मुझे शादी के बंधन से मुक्त कर रंजन के पास जाने की अनुमति दे दी, आवाज में ठहराव था पर दिल रो रहा था उनका भी।
मैं खुद को कोस रही थी ,थोड़ी सी झूठी तारीफ पा किस रास्ते निकल गई थी।षोडशी होती तो समझ में आता ,पैंतालीस की उम्र में बहक कर क्या ढूँढ रही थी।सात फेरे के सात वचन राज ने तो दिल से निभाया और मैने उन्हे उसके बदले क्या दिया ।
कहाँ जाती मैं … उस रंजन के पास जिसने चार दिन ब्लाक करने का ये सिला दिया था और किस भरोसे जाती जब प्यार को मजाक बना कर रख दिया था उसने।वो तो मेरी भावनाओं से खेल रहा था पर उसे गलत क्यो कहूँ ,उसकी लच्छेदार बातों में मैं ही जाकर फंसी थी ना।
आज महीनों हो गये हैं ,मैं और राज एक ही घर में अपरिचित की तरह रहते हैं । ऊपर से सब सामान्य दिखता है पर पति के साथ को तरस गईं हूँ ।राज ने स्पष्ट कह दिया है ‘ बच्चों की माँ बन कर ताउम्र इस घर में रह सकती हो, समाज की नजर में पत्नी का दर्जा रहेगा पर पत्नी के अधिकार से आजाद करता हूँ ।”
कैसे उम्मीद कर सकती हूँ पति के सान्निध्य का जिसे ठुकरा कर रंजन के आगोश में जाने के लिए बेताब थी। पति के रहते भी परित्यक्ता का जीवन जी रहीं हूँ । क्या मिला मुझे …….नैतिकता अनैतिकता तो नहीं जानती पर ये सजा ना जाने मुझे कब तक भुगतना है। रात तो ढल चुकी है पर मेरे जीवन में छाई कालिमा ना जाने कब खत्म हो। तकिया आँसू से गीला था शायद हर रात उसे गीले होने की आदत सी हो गई है ।
— किरण बरनवाल