शान्तिदूत : श्री कृष्ण के मानवीय व्यवहार को जानने समझने का अनोखा दस्तावेज
लेखक-कथाकार डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ का इस लघुउपन्यास को लिखकर सामने लाने का मुख्य उद्देश्य श्री कृष्ण के विषय में फैली अनेक भ्रांतियों से पर्दा उठाना है। आम पाठकों को कदाचित ज्ञात हो कि श्रीकृष्ण को भारत की जनता पूर्ण परात्पर ब्रह्म के रूप में भगवान समझती और पूजती है, लेकिन हमारे इस लेखक की दृष्टि पूर्णतया वैज्ञानिक और तर्कपूर्ण है। अतः श्री कृष्ण के प्रत्येक चरित्र को तार्किकता की कसौटी पर परखा गया है। आप यदि संवेदना से जुड़े हैं और श्रीकृष्ण को मानव अवतार के रूप में समझना चाहते हैं, तो इस लघुउपन्यास को शुरू से अन्त तक बार-बार पढ़ें और नई पीढ़ी को संस्कारित होने के लिए इसे पढ़ने को बाध्य करें ताकि उनके मन में जिज्ञासाएँ और प्रश्न उठें, जिनके उत्तर उन्हें श्रीकृष्ण के चरित्र से मिलना शुरू होंगे।
एक घटना जिसे हिन्दू जनमानस इस रूप में जानता है कि द्रोपदी के निर्वसन के समय सबको याद करने के पश्चात् जब उसने श्री कृष्ण को याद किया तो उन्होंने द्रोपदी की सहायता इस प्रकार की कि साड़ी ऐसा बढ़ायी कि सौ हाथियों का बल रखने वाला दुःशासन थककर गिर गया, पर द्रोपदी को नग्न नहीं कर पाया। लेकिन यह तर्क गले उतरता नहीं। इसलिए कथाकार कहता है कि महारानी द्रोपदी अपने वस्त्रों को शरीर से अलग होने से बचाने का पूरे बल से प्रयास कर रही थी, इसलिए दुःशासन पूरी तरह सफल नहीं हुआ। कदाचित वह सफल हो भी जाता, लेकिन तभी किसी ने महारानी गांधारी को इसकी सूचना दे दी और वे राजसभा में आ गयीं। आँख पर पट्टी बँधी होने के बावजूद उन्हें राजसभा का दृश्य समझने में कोई कठिनाई नहीं हुई।
एक नारी की पीड़ा दूसरी नारी ही अच्छी तरह समझ सकती है। उन्होंने महान् कुरुवंश की राजसभा में घट रही इस अमानवीय घटना पर बहुत क्रोध प्रकट किया और अंधे महाराज धृतराष्ट्र को धिक्कारा कि आपके होते हुए यह अनर्थ क्यों हो रहा है? अभी तक निर्विकार बैठे हुए महाराज को पत्नी द्वारा धिक्कारने पर लज्जा आयी और उन्होंने तत्काल आदेश देकर दुःशासन को रोक दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने द्यूत में हारी हुई समस्त सम्पत्ति और पाण्डवों को भी कौरवों के स्वामित्व से मुक्त कर दिया। पाण्डवों सहित सभी ने राहत की साँस ली और फिर शीघ्र ही इन्द्रप्रस्थ को प्रस्थान कर गये। पाण्डवों के इस प्रकार मुक्त हो जाने पर दुर्योधन और उसके साथियों की योजना रखी रह गयी।
कहने का आशय यह है कि पूरे उपन्यास में कृष्ण सोचते रहे, विचार करते रहे कि कहाँ कहाँ धृतराष्ट्र, दुर्योधन, भीष्म, द्रोणाचार्य यदि नीतिगत मानवीय निर्णय लेते तो युद्ध की स्थिति को टाला जा सकता था। पाण्डवों के पुरोहित और विद्वान् ऋषि धौम्य को प्रथम बार दूत बनाकर कौरवों के पास भेजा गया कि वे पाण्डवों का पक्ष कौरवों की राजसभा में भली प्रकार रख सकेंगे। ऋषि धौम्य ने अपना पक्ष इतनी कुशलता से रखा कि पितामह भीष्म, महात्मा विदुर, द्रोणाचार्य और कृपाचार्य के अतिरिक्त स्वयं महाराज धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को यह सलाह दी कि पुत्र तुम मान जाओ तथा पाण्डवों का राज्य उन्हें लौटा दो। लेकिन दुर्योधन ने स्पष्ट तौर पर मना कर दिया तथा कहा कि अज्ञातवास पर पाण्डवों को पहचान लिया गया है, अतः उन्हें फिर 12 वर्ष के वनवास और 1 वर्ष के अज्ञातवास पर चले जाना चाहिए। दुर्योधन की बातों पर रिरियाने के अतिरिक्त अपमानजनक बातें सुनकर भी अंधे पिता धृतराष्ट्र कुछ नहीं कर सके। ऋषि धौम्य उपप्लव्य नगर लौट आये। अब सभी कौरवों के दूत की प्रतीक्षा करने लगे।
संजय जो धृतराष्ट्र का सारथी था, कौरवों ने उसे दूत बनाकर भेजा। वह लज्जा और संकोच से गढ़ा जा रहा था। उसने कहा भी कि उसमें एक भी शब्द उसका अपना नहीं है, कृपया मुझे क्षमा करें। यु़िधष्ठिर से आश्वासन पाकर उसने कौरवों का संदेश सुना डाला, जो मात्र धमकी था। पाण्डवों का मनोबल तोड़ना था, संधि की कोई सम्भावना नहीं थी। वेद व्यास ने भी प्रयास किया, लेकिन हस्तिनापुर से उन्हें निराश लौटना पड़ा।
अन्त में स्वयं श्रीकृष्ण को ‘शान्तिदूत’ बनकर जाने का निर्णय लेना पड़ा और वे गये भी, यह जानते हुए कि दुर्योधन नहीं मानेगा, किन्तु उन्हें संतोष था कि भले ही अपने प्रयास में वे असफल रहे, किन्तु अब संसार का इतिहासकार उन्हें इस बात के लिए लांछित नहीं कर सकेंगे कि उन्होंने अपनी ओर से इस महायुद्ध को रोकने का कोई प्रयास नहीं किया।
यह उपन्यास अप्रतिम है, बहुत ही दिलचस्प ताना-बाना है, 112 पृष्ठ चुटकी बजाते-बजाते पूर्ण हो जाते हैं। इस उपन्यास का प्रचार-प्रसार पूरे भारतवर्ष में होना चाहिए और एक एक व्यक्ति को संस्कारित होने हेतु पढ़ना चाहिए। हिन्दी साहित्य जगत में यह उपन्यास विशेष रूप से चर्चित हो, इस हेतु इसको करोड़ों प्रतियों में प्रत्येक पुस्तकालय में अनिवार्यतः पहुँचाने का प्रबन्ध होना चाहिए।
— इं. देवकी नन्दन ‘शान्त’, साहित्यरत्न