ग़ज़ल
हमारे साथ रहा फिर भी दूर-दूर रहा
न हमने उससे कभी कुछ न उसने हमसे कहा
वो जानता है हमें उससे हम भी हैं वाकिफ
बस इक गुरूर का दरिया हमारे बीच बहा
न छेड़छाड़ की बातें न गुफ्तगू कोई
जुदा था दर्द सो हमने जुदा ही सहा
तमाम रंग थे बिखरे हमारे चारों तरफ
पे अपनी जैसी चदरिया थी वैसा रंग गहा
गुजर के कूचे से उसके लगा हमें जैसे
निकलके तीर्थ से आया हो कोई पाप नहा
भरम में डूबा रहा स्वाभिमान के वो उधर
इधर न हमने भी खुद्दारियों को अपनी तहा
न थी हवस न कहीं ‘शान्त’ वासना मन में
चिता-ए-फिक्र में चन्दन बदन दहा सो दहा
— देवकी नन्दन ‘शान्त’