मंचीय शुचिता
काव्य-गीत के मंच को , जिसने किया अशुध्द ।
उसको ना विद्या मिले, रहें सरस्वती क्रुध्द ।।
फूहड़ता अब छोड़ दो, ये कवियो दो ध्यान ।
वरना तो हो जायगी, कविता अन्तर्ध्यान ।।
नहीं लतीफे और अब, सुनो छिछोरेबाज़।
कर लो मिल सारे जतन, जगमग करो समाज ।।
पैसे ने शुचिता हरी, कविवर हैं अब भांड ।
बैला, छैला नाम हैं, झकलट, हलकट, सांड ।।
जोकर जैसा वेश है, चाल-ढाल बेनूर ।
मंचों से तो हो गई, सारी शुचिता दूर ।।
सारे कवि यदि ठान लें, तो बन सकती बात ।
हम सबको है रोकना, कविता पर आघात ।।
मंचों पर बस गीत हो, बहे काव्य-रसधार ।
मंचों की शुचिता बचे, हम मिल करें विचार ।।।
“नीलम” कहती बात यह, देकर ज़्यादा ज़ोर ।
मंचों की शुचिता फले, न हो लतीफा-शोर ।।
— डॉ.नीलम खरे