विवशता?
विवशता?
“मम्मी आज मत दाओ ना, तुम नहीं होती हो तो अच्छा नहीं लगता!” रचना की तीन साल की बेटी पीहू ने खाँसते हुए कहा जिसे सुनकर रचना का मन रो पड़ा।
” बेटा मीना आंटी हैं ना और पापा भी तो आपके पास आते ही रहते हैं। तुम तो मेली लानी बिटिया हो ना? अच्छा ठीक है मैं जल्दी वापस आ जाऊँगी, ओके?” किसी तरह बेटी को मनाकर वो स्कूल के लिए निकल पड़ी। आज उसके कदम उठ नहीं रहे थे।
शुरू में उसने शौकिया पब्लिक स्कूल जॉइन किया था, अकेली थी और श्रीमान जी अपने दुकान में ही बिजी रहते थे। नामी पब्लिक स्कूल में पैसा भी अच्छा मिल रहा था और उसका वक़्त भी कट जाता। पीहू के जन्म से पहले ही श्रीमान जी की दुकान दिनों दिन घाटे में जाने लगी। फिर तो उसका जॉब ही सहारा बना पर पीहू के जन्म के बाद उसे घर में ‘आया’ के पास छोड़कर जाना अखरने लगा। पर दिल पे पत्थर रख लिया उसने क्योंकि ये जॉब अब जरूरत बन गयी। यही सब सोचते- सोचते वो स्कूल पहुँची। आजकल स्कूल के एनुअल फंक्शन की तैयारी चल रही थी। रचना ने सोचा प्रिंसीपल से आज जल्दी निकलने की बात कर लेगी क्योंकि फंक्शन की तैयारी में कभी रात के आठ भी बज जाते, कल तो रात नौ बजे घर पहुँची थी।
” ये क्या लगा रखा है रचना जी जब देखो तब आपको प्रॉब्लम ही होती रहती है, आप ऐसा क्यों नहीं करती नौकरी ही छोड़ दीजिए!” प्रिंसीपल सर उसकी बात सुनते ही भड़क उठे।
“सर, बात ये है कि मेरी बेटी की तबियत…..।”
“आपको पता नहीं है, एनुअल फंक्शन में कितने बड़े-बड़े लोग आते हैं? कान खोलकर सुन लीजिए मैं किसी भी तरह की लापरवाही बर्दाश्त नहीं कर सकता। वैसे आप ढंग से बेटी का इलाज क्यों नहीं कराती अक्सर उसकी बीमारी की बात मेंशन करके छुट्टियां लेती हैं।” अब वो क्या बोलती आया कि देखरेख में पल रही पीहू सच में अक्सर ही बीमार रहती है। वो चुपचाप उठी और प्रिंसीपल केबिन से बाहर निकल गयी।
———कविता सिंह————–