लघुकथा – पश्चाताप के आँसू
विनय प्रताप का नया-नया तबादला हुआ था | यह शहर उसके लिए बिल्कुल नया था | दोपहर को चाय पीने के लिए अपने कार्यालय के ठीक सामने वाली रामू टी स्टॉल पर एक कप चाय का आर्डर देने ही वाला था कि उसकी नजर बस स्टॉप की बैंच पर बैठी जानी-पहचानी सी एक बूढी औरत पर चली गई | पास जाकर देखा तो विनय एकदम से पहचान गया |
‘माता जी आप यहाँ कैसे… आगरा घूमने आई हैं? आकाश के साथ आई हैं, कहाँ है वो… क्या कोई सामान लेने गया है?’ एक ही सांस में विनय ने तमाम प्रश्न माताजी से कर डाले | माताजी विनय के सवालों के जवाब देने की वजाय उलटे फूट-फूटकर रो पडीं | किसी तरह विनय ने माताजी को धैर्य बँधाया और उन्हें अपने साथ घर ले गया | घर पर माताजी ने पूरा घटना क्रम विनय प्रताप को बता दिया | विनय को बड़ा आश्चर्य हुआ कि उसका लंगोटिया यार आकाश इतना गिरा हुआ काम भी कर सकता है | अगले ही दिन माताजी को साथ लेकर विनय अहमदाबाद चला गया |
केन्द्र सरकार का प्रथम श्रेणी आफिसर आकाश अपने बड़े से बंगले के गार्डन में विदेशी कुत्ते से खेल रहा था | तभी उसकी नजर अपनी माँ पर पड़ी | माँ को देखते ही आकाश के पैरों तले जमीन खिसक गई | तालियाँ बजाता हुआ विनय भी सामने आ गया | ‘वाह ! आकाश वाह… लाखों की पगार पाने वाला इतना बड़ा आफीसर अपनी बूढ़ी बेबस, लाचार माँ को मरने के लिए सैकड़ों मील एक अनजान शहर में छोड़ आया | क्या माताजी का खर्च तुम्हारे इस विदेशी नस्ल के कुत्ते से भी अधिक था, जो तुम उठाने में असमर्थ हो गये |’
आकाश को अपनी गलती का एहसास हुआ तो वह अपने किये पर आंसू बहाने लगा, वो कुछ बोलता इससे पहले विनय जा चुका था | आकाश अपनी माँ के चरणों को पश्चाताप के आँसुओं से धो रहा था… |
— मुकेश कुमार ऋषि वर्मा